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मैं चाहता हूँ

मैं चाहता हूं एक दिन आओ तुम इस तरह कि जैसे यूं ही आ जाती है ओस की बूंद किसी उदास पीले पत्ते पर और थिरकती रहती है देर तक मैं चाहता हूं एक दिन आओ तुम जैसे यूं ही किसी सुबह की पहली अंगड़ाइ के साथ होठों पर आ जाता है वर्षों पहले सुना कोई सादा सा गीत और देर तक चिपका रहता है पहले चुम्बन के स्वाद सा मैं चाहता हूं एक दिन यूं ही पुकारो तुम मेरा नाम जैसे शब्दों से खेलते-खेलते कोई बच्चा रच देता है पहली कविता और फिर गुनगुनाता रहता है बेखयाली में मैं चाहता हूं यूं ही किसी दिन ढूंढते हुए कुछ और तुम ढूंढ लो मेरे कोई पुराना सा ख़त और उदास होने से पहले देर तक मुस्कराती रहो मै चाहता हूँ यूँ ही कभी आ बैठो तुम उस पुराने रेस्तरां की पुरानी वाली सीट पर और सिर्फ एक काफी मंगाकर दोनों हाथों से पियो बारी बारी मैं चाहता हूँ इस तेजी से भागती समय की गाड़ी के लिए कुछ मासूम से कस्बाई स्टेशन

वैश्विक गांव के पंच परमेश्वर

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पहला कुछ नहीं खरीदता न कुछ बेचता है बनाना तो दूर की बात है बिगाड़ने तक का शऊर नहीं है उसे पर तय वही करता है कि क्या बनेगा- कितना बनेगा- कब बनेगा खरीदेगा कौन- कौन बेचेगा दूसरा कुछ नहीं पढ़ता न कुछ लिखता है परीक्षायें और डिग्रियाँ तो खैर जाने दें किताबों से रहा नहीं कभी उसका वास्ता पर तय वही करता है कि कौन पढ़ेगा- क्या पढ़ेगा- कैसे पढ़ेगा पास कौन होगा- कौन फेल तीसरा कुछ नहीं खेलता जोर से चल दे भर तो बढ़ जाता है रक्तचाप धूल तक से बचना होता है उसे पर तय वही करता है कि कौन खेलेगा- क्या खेलेगा- कब खेलेगा जीतेगा कौन- कौन हारेगा चौथा किसी से नहीं लड़ता दरअसल ’शुद्ध ’शाकाहारी है बंदूक की ट्रिगर चलाना तो दूर की बात है गुलेल तक चलाने में कांप जाता है पर तय वही करता है कि कौन लड़ेगा -किससे लड़ेगा - कब लड़ेगा मारेगा कौन - कौन और पाँचवां सिर्फ चारों का नाम तय करता है।