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कहां होंगी जगन की अम्मा ?

सतरंगे प्लास्टिक में सिमटे सौ ग्राम अंकल चिप्स के लिये ठुनकती बिटिया के सामने थोड़ा शर्मिन्दा सा जेबें टटोलते अचानक पहुंच जाता हूं बचपन के उस छोटे से कस्बे में जहां भूजे की सोंधी सी महक से बैचैन हो ठुनकता था मैं और मां बांस की रंगीन सी डलिया में दो मुठ्ठी चने डाल भेज देती थीं भड़भूजे पर जहां इंतजार में होती थीं सुलगती हुइ हांड़ियों के बीच जगन की अम्मा। तमाम दूसरी औरतों की तरह कोइ अपना निजी नाम नहीं था उनका प्रेम या क्रोध के नितांत निजी क्षणों में भी बस जगन की अम्मा थीं वह हालांकि पांच बेटियां भी थीं उनकीं एक पति भी रहा होगा जरूर पर कभी जरूरत ही नहीं महसूस हुई उसे जानने की हमारे लिये बस हंड़िया में दहकता बालू और उसमे खदकता भूजा था उनकी पहचान. हालांकि उन दिनों दूरदर्शन के इकलौते चैनल पर नहीं था कहीं उसका विज्ञापन हमारी अपनी नंदन,पराग या चंपक में भी नहीं अव्वल तो थी हीं नहीं इतनी होर्दिंगे और जो थीं उन पर कहीं नहीं था इनका जिक्र पर मां के दूध और रक्त से मिला था मानो इसका स्वाद तमाम खुशबुओं में सबसे सम्मोहक थी इसकी खुशबू और तमाम दृश्यों में सबसे खूबसूरत

यह आप पर है

मै लिखना चाहता था शेर उन्होंने कहा कविता में बस बना दी जाती है पूँछ अब यह पाठक पर है कि शेर समझे या बकरी मै करना चाहता था प्रतिवाद उन्होंने कहा कविता में बस लगा दी जाती है तीन बिंदी अब यह आलोचक पर है कि प्रतिवाद समझे या स्वीकार मै चाहता था ठठाकर हँसना उन्होंने कहा कविता में बस खींच देते है सीधी रेखा अब यह संपादक पर है की तय कर ले आकार रोने के साथ नही है ऐसा रुदन ही है हमारे समय का समय का सबसे बड़ा सच जो जितनी जोर से रोये वह उतना ही प्रतिबद्ध