तुम्हे कैसे याद करुँ भगत सिंह
(यह कविता काफी पहले ब्लॉग पर लगायी थी ... पर तब ब्लॉग पर इतनी आवाजाही नही थी।) जिन खेतों में तुमने बोई थी बंदूकें उनमे उगी हैं नीली पड़ चुकी लाशें जिन कारखानों में उगता था तुम्हारी उम्मीद का लाल सूरज वहां दिन को रोशनी रात के अंधेरों से मिलती है ज़िन्दगी से ऐसी थी तुम्हारी मोहब्बत कि कांपी तक नही जबान सू ऐ दार पर इंक़लाब जिंदाबाद कहते अभी एक सदी भी नही गुज़री और ज़िन्दगी हो गयी है इतनी बेमानी कि पूरी एक पीढी जी रही है ज़हर के सहारे तुमने देखना चाहा था जिन हाथों में सुर्ख परचम कुछ करने की नपुंसक सी तुष्टि में रोज़ भरे जा रहे हैं अख़बारों के पन्ने तुम जिन्हें दे गए थे एक मुडे हुए पन्ने वाले किताब सजाकर रख दी है उन्होंने घर की सबसे खुफिया आलमारी मैं तुम्हारी तस्वीर ज़रूर निकल आयी है इस साल जुलूसों में रंग-बिरंगे झंडो के साथ सब बैचेन हैं तुम्हारी सवाल करती आंखों पर अपने अपने चश्मे सजाने को तुम्हारी घूरती आँखें डराती हैं उन्हें और तुम्हारी बातें गुज़रे ज़माने की लगती हैं अवतार बनाने की होड़ में भरे जा रहे हैं तुम्हारी तकरीरों में मनचाहे रंग रं