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हत्यारे

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(एक) हत्यारा अब नहीं रहा रात के अंधेरों का मुहताज मुक्त अर्थव्यवस्था के पंचसितारा सैलून में सजसंवर कर निःसंकोच घूमता है न्याय की दुकानो से सत्ता के गलियारों तक नये चलन के बरअक्स पहन लिए हैं त्रिशूल के लाॅकेट और अपने हर शिकार को कहता है आतंकवादी! (दो) टूटते परिवारों के इस दौर में हत्यारों ने संभाल कर रखा है अपना परिवार एक हत्या करता है दूसरा उसे गिरफ़्तार करता है तीसरा अदालत में जिरह करता है चौथा बेगुनाही की गवाही देता है पांचवा उसे बाईज्ज़त बरी करता है और फिर सब मिलकर निकलते हैं शिकार पर! ( पेंटिंग गूगल से साभार)

ख़त्म नही होती बात...

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(हालिया प्रकाशित कुछ महत्वपूर्ण कविता संकलनों से असुविधा पर आपको रु ब रु कराने के वायदे के तहत हम इस बार प्रस्तुत कर रहे हैं ख्यात युवा कवि बोधिसत्व का ताज़ा संकलन 'ख़त्म नहीं होती बात'। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस संकलन का मूल्य है २०० रु। १९९१ में प्रकाशित अपने पहले संकलन 'सिर्फ़ कवि नहीं' से पहचान बनाने वाले बोधि भाई के अन्य संकलन हैं -' हम जो नदियों के संगम हैं '(२०००) और 'दुख तंत्र '(२००४)। यहां प्रस्तुत है उनके संकलन का ब्लर्ब और तीन कवितायें) जीने का सहजबोध और उसको सहारती-सँभालतीदुधमुँही कोंपलों-सी कुछ यादें, कुछ कचोटें, कुछ लालसाएँऔर कुछ शिकायतें। बोधिसत्व की ये कविताएँसमष्टि-मानस की इन्हीं साझी जमीनों से शुरू होतीहैं, और बहुत शोर न मचाते हुए, बेकली का एकमासूम-सा बीज हमारे भीतर अँकुराने के लिए छोड़ जातीहैं। इन कविताओं की हरकतों से जो दुनिया बनतीहै, वह समाज के उस छोटे आदमी की दुनिया है जिसकेबारे में ये पंक्तियाँ हैं : ‘‘माफी माँगने पर भी/माफनहीं कर पाता हूँ/छोटे-छोटे दुखों से/उबर नहीं पाताहूँ/पावभर दूध बिगड़ने पर/कई दिन फटा रहता हैमन/

पता नहीं कितनी बची हो तुम मेरे भीतर!

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तुम्हारी तरह होना चाहता हूं मैं तुम्हारी भाषा में तुमसे बात करना चाहता हूं तुम्हारी तरह स्पर्श करना चाहता हूं तुम्हें तुम होकर पढ़ना चाहता हूं सारी किताबें तुम्हें महसूसना चाहता हूं तुम्हारी तरह वर्षों पहले पढ़ा था कभी मुझमें भी हो तुम ज़रा सा उस ज़रा सा तुम को टटोलना चाहता हूं अपने भीतर बहुत दूर तक गया हूं अक्सर इस तलाश में जहां मुझे पैरों पर लिटा जाड़े की गुनगुनी धूप में एक अधेड़ औरत गा रही है जुग-जुग जियसु ललनवा भवनवा के भाग जागल हो और उसकी आंखों से टपक रहा है किसी भवन का भाग्य न जगा पाने का दुख उस दुख से अनजान एक दूसरी औरत रुई के फ़ाहे सी उड़ रही है उल्लास से सखियों की इर्ष्यालु चुहल से बेपरवाह हर सवाल का एक ही जवाब है उसके पास घी क लड्डू टेढ़ों भल मैं देख रहा हूं तुम्हें अपने भीतर सहमकर सिमटते हुए मैं तुम्हें दौड़कर थाम लेता हूं और निकल जाता हूं बौराये हुए आम के बग़ीचे तक वहां मैली जनेऊ पहीने एक स्थूलकाय पुरुष कुलदेवी की मूर्ति के सम्मुख नतमस्तक है दान की प्रतीक्षा में उत्सुक विप्र बांच रहे