संदेश

मई, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

वे इसे सुख कहते हैं

चित्र
पवित्र परिवार! साथ साथ रहते हैं दोनो एक ही घर में जैसे यूंही रहते आये हों पवित्र  उद्यान से निष्काषन के बाद से ही अंतरंग इतने कि अक्सर यूं ही निकल आती है सद्यस्नात स्त्री जैसे कमरे में पुरूष नहीं निर्वात हो अशरीरी चौदह वर्षों से रह रहे हैं एक ही छत के नीचे प्रेम नहीं अग्नि के चतुर्दिक लिये वचनो से बंधे अनावश्यक थे जो तब और अब अप्रासंगिक मित्रता का तो ख़ैर सवाल ही नहीं था ठीक ठीक शत्रु भी नहीं कहे जा सकते पर शीतयुद्ध सा कुछ चलता रहता है निरन्तर और युद्धभूमि भी अद्भुत ! वह बेहद मुलायम आलीशान सा सोफा जिसे साथ साथ चुना था दोनो ने वह बड़ी सी मेज़ जिस पर साथ ही खाते रहे हैं दोनो वर्षों से बिला नागा और वह बिस्तर जो किसी एक के न होने से रहता ही नहीं बिस्तर प्रेम की वह सबसे घनीभूत क्रीड़ा जिक्र तक जिसका दहका देता था रगों में दौड़ते लहू को ताज़ा बुरूंश सा चुभती है बुढ़ाई आंखों की मोतियाबिंद सी स्तनों के बीच गड़े चेहरे पर उग आते हैं नुकीले सींग और पीठ पर रेंगती उंगलियों में विशाक्त नाखून शक्कर मिलों के उच्छिष्ट सी गंधाती हैं सांसे खुली आंखों से टपकती है क

हम नालायक बेटे

कोई नहीं आया दरवाज़े पर पिता की प्रतिष्ठा बढ़ाने सारे विवाह गीत मां के होठों में दबे रह गये नहीं मिला बुआ को जड़ाऊ हार दोस्तों की सारी रात नाचते रहने की तमन्ना अधूरी रह गयी भाई तरसता रहा सहबाला बनने को गहनों की आकांक्षा तो शायद उसको भी थी जिसके दरवाज़े पर नहीं आई घोड़ों वाली बारात जिसके पिता को नहीं पूजना पड़ा पांव उसकी भी मां के सीने से लग अहक-अहक रोने की चाह अधूरी रह गयी सोहर से शुरु हुए सफ़र में कितनी उम्मीदें थी हमारे कांधों पर सवार हर अंकपत्र से बलवती होतीं कितनी आकांक्षायें एक पूरा समाज था ईर्ष्या और आकांक्षाओं के रथ पर सवार कितने ही यज्ञों का अश्व बनना था हमें कितने ही कृष्णों का अर्जुन कितने ही किस्सों का नायक … सहनायक हम पुरुष थे अधिकार और गर्व से भरे कर्तव्यों का उतना बोझ नहीं था कभी कितनी वैतरणियां थीं हमारी गर्वीले कांधों के इंतज़ार में कितनी परंपरायें, पूर्वजों के कितने किस्से कितने ही धनुष थे हमारे इंतज़ार में और कितनी ही चिड़ियां हमारी उम्र से भारी कितनी ही उम्मीदों का तूणीर… सब के सब निराश सब के सब नाराज़ सब

सपने में मौत!

चित्र
असीम ( असीम मेरा पुराना दोस्त है। बचपन का… बारहवीं तक देवरिया के सरकारी इंटरकालेज में साथ ही पढ़े। वह कुछ उन दोस्तों में से था जिनसे दोस्ती का मतलब सिर्फ़ मौजमस्ती नहीं रही। हम कविता, देश-दुनिया और न जाने क्या-क्या बतियाया करते थे। अपना कवि जाग चुका था तो जो टूटा-फूटा लिखते शेयर करते। लंबे समय तक अपनी-अपनी ज़िंदगियों में मशरूफ़ रहे और फिर नेट पर टकराये। असीम एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में है और उन अर्थों में साहित्यिक जीव नहीं है। विचारधारा को लेकर भी उसके आग्रह नहीं। इधर कसाब को फ़ांसी की सज़ा के बाद जो यूफोरिया पैदा हुई उसने देश में एक अजीब सा माहुल बना दिया है। हर कोई ख़ून के बदले ख़ून जैसी मध्यकालीन सोच से संचालित हो रहा है। मीडिया भी इस पागलपन को ही बढ़ा रहा है। ब्लाग पर भी धीरेश की एक ज़िद्दी धुन के अलावा कहीं कोई संयत आवाज़ नही सुनाई दी। ऐसे में जब असीम आज सुबह चैटरूम में टकराया तो उसने एक कविता पढ़वाई जो इसी अन्तर्द्वंद्व से उपजी है। आप भी पढ़िये। “ कल मैंने एक सपना देखा ” कल मैंने एक सपना देखा , सपने में कोई अपना देखा , उस अपने का तडपना देखा , तड़प तड़प के