तौलिया, अर्शिया, कानपुर
मेरे सामने जो तौलिया टंगा है अर्शिया लिखा है उस पर और कानपुर न कानपुर को जानता हूं मैं न किसी अर्शिया को जानता हूं जानने की तरह वे कविताओं में आती हैं जैसे कभी-कभार ज़िंदगी में भी अक्सर नितांत अपरिचित की ही तरह जिस इकलौती परिचित सी लड़की का नाम था उसके सबसे करीब कालेज़ के दिनों में थी वह मेरे साथ प्रणय निवेदन के जवाब में कहा था उसने ‘ बहुत ख़तरनाक हैं मेरे ख़ानदान वाले कभी नहीं होने देंगे हमारी शादी हो भी गयी तो मार डालेंगे हमें ढ़ूंढ़कर ’ मैं बस चौंका था यह सुनकर शादी तब थी भी नहीं मेरी योजनाओं में और अख़बारों में इज़्जत और हत्या इतने साथ-साथ नहीं आते थे… उन दिनों तौलिये एक कहानी थी किसी कोर्स की किताब की जिससे शिक्षा मिलती थी कि परिवार में हरेक के पास होनी ही चाहिये अपनी तौलिया मुझे नहीं याद कि उस कहानी के आस-पास था किसी तौलिये का विज्ञापन यह भी नहीं कि क्या थी उन दिनों तौलिये की क़ीमत आज सबसे सस्ता तौलिया बीस रुपये का मिलता है और रोज़ बीस रुपये से कम में ही पेट भर लेते हैं सबसे देशभक्त सत्तर फीसदी लोग उनके बच्चे यक़ीनन नहीं