सिर्फ थकी आंखों में आते हैं स्वप्न!
राबर्ट डब्ल्यू बुस का चित्र 'डिकेन्स ड्रीम्स',गुगल सर्च से साभार आंखें न जाने कितने दिनों से किसी अनजानी चीज़ की तलाश में घंटो खंगालती है कम्प्यूटर की स्क्रीन किताबें न जाने कितनी बार उलट-पुलट डालीं घर का हर कोना…अख़बार की हर ख़बर शहर की तमाम गलियों में भटकती फिरतीं कितने चेहरे, कितने दृश्य, कितनी ही आवाज़ों से टकराकर लौटीं मायूस चलती ही जा रही हैं जबसे ख़ुलीं कितने ही चश्मे थककर चूर हो गये ऊब गये कितने ही दृश्य कितनों ने कहा- हमें आराम करने दो इस सुनसान गुफा में कितने हाट-बाज़ार अपनी सारी चमक लिये लौटे इनके दर से मायूस कितने ही शब्द अंजन की तरह बह गये चुपचाप इतिहास के अबूझ गिरि-गह्वरों में गिरती-पड़ती-संभलती फिरती किसी बंजारे सी सभालतीं एक-एक पत्थर उन पर बने चित्र और शब्द कुछ अबूझ बेझिझक उतर पड़तीं महासागरों की अनन्त गहराईयों में आकाशगंगाओं में तैरतीं अविराम अजीब सी तलाश एक मुसलसल अजीब सी प्यास कि बढ़ जाती है बुझते ही मैं पूछता हूं अक्सर — थक नहीं जाती तुम और किसी मदमस्त नशेड़ी की तरह आता है झूमता सा जवाब