संदेश

अक्तूबर, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सिर्फ थकी आंखों में आते हैं स्वप्न!

चित्र
राबर्ट डब्ल्यू बुस का चित्र 'डिकेन्स ड्रीम्स',गुगल सर्च से साभार आंखें न जाने कितने दिनों से किसी अनजानी चीज़ की तलाश में घंटो खंगालती है कम्प्यूटर की स्क्रीन किताबें न जाने कितनी बार उलट-पुलट डालीं घर का हर कोना…अख़बार की हर ख़बर शहर की तमाम गलियों में भटकती फिरतीं कितने चेहरे, कितने दृश्य, कितनी ही आवाज़ों से टकराकर लौटीं मायूस चलती ही जा रही हैं जबसे ख़ुलीं कितने ही चश्मे थककर चूर हो गये ऊब गये कितने ही दृश्य कितनों ने कहा- हमें आराम करने दो इस सुनसान गुफा में कितने हाट-बाज़ार अपनी सारी चमक लिये लौटे इनके दर से मायूस कितने ही शब्द अंजन की तरह बह गये चुपचाप इतिहास के अबूझ गिरि-गह्वरों में गिरती-पड़ती-संभलती फिरती किसी बंजारे सी सभालतीं एक-एक पत्थर उन पर बने चित्र और शब्द कुछ अबूझ बेझिझक उतर पड़तीं महासागरों की अनन्त गहराईयों में आकाशगंगाओं में तैरतीं अविराम अजीब सी तलाश एक मुसलसल अजीब सी प्यास कि बढ़ जाती है बुझते ही मैं पूछता हूं अक्सर — थक नहीं जाती तुम और किसी मदमस्त नशेड़ी की तरह आता है झूमता सा जवाब

फिर वही बात…

यह कविता दुबारा पोस्ट कर रहा हूं…थोड़ा काम किया है… ये किन हाथों में पत्थर हैं? ये कौन से हाथ हैं पत्थरों में लिथड़े ये कैसे चेहरे हैं पथराये हुए ये कैसी आंखे हैं नीले पत्थर की कौन सी मंज़िल है आधी सदी से बदहवास चलते इन पत्थर पहने पावों की यह कौन सी जगह है किसकी है यह धरती किस देश का कौन सा हिस्सा किसकी सेना है और जनता किसकी कि दोनों ओर बस पत्थर ही पत्थर ये कौन अभागे लोग कि जिनके लिये दिल्ली का दिल भी पत्थर है… किसका ख़ून है यह पत्थरों पर जो बस अख़बारों के पहले पन्ने पर काला होकर जम जाता है किनकी लाशें हैं ये जिनसे होकर दिल्ली का रस्ता जाता है मैं किस रस्ते से इन तक पहुंचूं किस भाषा में इनसे पूछूं कैसा दुख यह जिसका मर्सिया आधी सदी से ज़ारी है यह कौन सा गुस्सा कौन सी ज़िद है जो ख़ुद अपनी जान पे भारी है मैं कैसे उन्हें दीवाना कह दूं… जिनकी आंखों का पानी जमकर सूख गया है जिनके होठों पर बोल नहीं बस एक पथरीला गुस्सा है जिनके हाथों का हुनर कसा है बस एक सुलगते पत्थर पर वह पत्थर जिसकी मंजिल भी बस पत्थर पहने सिर है एक वह प