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नवंबर, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

इसे बढ़ना था कितनी दिशाओं में मैत्री के लिये

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इस बार प्रस्तुत हैं महेश वर्मा की कवितायें…अम्बिकापुर में रहने वाले महेश परस्पर पत्रिका से जुड़े रहे … उनकी कवितायें हिन्दी की प्रतिबद्ध परंपरा से गहरे जुड़ती हैं और एक बेहतर दुनिया के स्वप्न को हक़ीक़त में बदलने के लिये ज़रूरी हस्तक्षेप करती हैं...उन्हें अंतरजाल पर पहली बात पेश करते हुए असुविधा की ओर से शुभकामनाएं  चढ़ आया है पानी देह के भीतर चढ़ता जा रहा है पानी बाहर आईने में रोज परख रहा हूं मैं अपनी त्वचा का आश्वासन, एक पुराने चेहरे के लिये मेरे पास है मुस्कान का समकालीन चेहरा. कल जो कमर तक था पानी आज  चढ़ आया है सीने तक सुनाई देने लगी है कानों में हहराते पानी की आवाज़ दिखाई देते हैं फुनगी के थोड़े से पत्तो डूब जो चुकी है पगली झाड़ी. किसी पर्व की रात सिराए दीपक सी अब भी डगमग उतराती हो आत्मा इसी बढ़ते जल में! रहस्य कितने बल से धकेला जाये दरवाजा दाहिने हाथ से और उसके कोन से पल चढ़ाई जा सकेगी बाएँ हाथ से चिटखनी इसी संयोजन में छुपा हुआ है- मुश्किल से लग पाने वाली चिटखनी का रहस्य. इस चिटखनी के लगन से जो बंद होता दरवाजा उसके बाहर और भीतर सिर झुक

शरद कोकास की कवितायें

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शरद कोकास से मेरा पहला परिचय उनकी लम्बी कविता 'पुरातत्ववेत्ता' से हुआ…फिर मिले वह नेट पर…और शरद भाई बन गये…एक ऐसे कवि जिनसे मैने बहुत कुछ सीखा…कविता के भीतर भी और बाहर भी…इतने सहज कि लगा ही नहीं कि वह मुझसे एक पीढ़ी आगे के कवि हैं…इतने स्पष्ट की फोन पर बात करते हुए उनके चेहरे की रेखाओं को पढ़ा जा सके…और इतने स्नेहिल की उनसे बिना मिले कोई भी दुख शेयर किया जा सके…नेट जगत के अगर वह लगभग इकलौते ऐसे कवि हैं जिनके ब्लाग पर कविताओं की क्वालिटी और टिप्पणियों की क्वांटिटी दोनों लगातार बेहतर होते गयी है तो उसके मूल में उनका यही स्वभाव है…इस बार असुविधा में उनकी कुछ नयी-पुरानी कवितायें डायन वे उसे डायन कहते थे गाँव मे आन पडी़ तमाम विपदाओं के लिये मानो वही ज़िम्मेदार थी उनका आरोप था उसकी निगाहें बुरी हैं उसके देखने से बच्चे बीमार हो जाते हैं स्त्रियों व पशुओं के गर्भ गिर जाते हैं बाढ के अन्देशे हैं उसकी नज़रों में उसके सोचने से अकाल आते हैं उसकी कहानी थी एक रात तीसरे पहर वह नदी का जल लेने गई थी ऐसी खबर थी कि उस वक़्त उसके तन पर एक भी कपडा़ न था

अपर्णा मनोज की कवितायें

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(अपर्णा मनोज से मेरा परिचय फेसबुक पर हुआ…वहां उनकी कवितायें कविता सृजन के इस महाविस्फोटक काल में अलग से चमकतीं लगीं…विषय की गहराई तक उतरने का माद्दा, विषयों की विविधता, शिल्प में भटकन का आनंद और एक गहन संवेदनशीलता से पगी उनकी कवितायें देर तक सोचने को विवश करती हैं। ये कवितायें धैर्य से पढ़े जाने की मांग करती हैं… )   बाहर बहुत बर्फ है तुम्हारे देश के उम्र की है अपने चेहरे की सलवटों को तह कर  इत्मीनान से बैठी है पश्मीना बालों में उलझी समय की गर्मी तभी सूरज गोलियां दागता है और पहाड़ आतंक बन जाते हैं तुम्हारी नींद बारूद पर सुलग रही है पर तुम घर में कितनी मासूमियत से ढूंढ़ रही हो कांगड़ी और कुछ कोयले जीवन के तुम्हारी आँखों की सुइयां बुन रही हैं रेशमी शालू कसीदे फुलकारियाँ दरियां .. और तुम्हारी रोयें वाली भेड़ अभी-अभी देख आई है कि चीड और देवदार के नीचे झीलों में खून का गंधक है और पी आई है वह पानी के धोखे में सारी झेलम अजीब सी बू में मिमियाती ... किसी अंदेशे को सूंघती कानों में फुसफुसाना चाहती है पर हलक में पड़े शब्द चीत्