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जनवरी, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मार्क स्ट्रैण्ड की कुछ कवितायें

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मार्क स्ट्रैण्ड का जन्म 11 अप्रैल , 1934 को कनाडा के प्रिंस एडवर्ड आईलैण्ड में हुआ था। उन्होंने बी ए की डिग्री ओहियो के एन्टियाक कालेज़ से 1957 में प्राप्त की थी और आगे की पढ़ाई येल कालेज़ से की , जहाँ उन्हें ‘ कुक पुरस्कार ’ और ‘ बर्गिन पुरस्कार ’ प्राप्त हुए। बाद में फुलब्राइट छात्रवृत्ति पाकर उन्होंने आयोवा विश्विद्यालय में अध्ययन किया। उनके प्रमुख कविता संग्रहों में ‘ मैन एण्ड कैमेल (2006), बिज़ार्ड आफ़ वन (1998), डार्क हार्बर (1993), द कान्टिनिवस लाइफ़ (1990), सेलेक्टेड पोएम्स (1980), द स्टोरी आफ़ अवर लाईफ़ (1973) और रीजन्स फार मूविंग (1968) शामिल हैं। उन्हें ‘ बिज़ार्ड आफ़ वन ’ के लिये प्रतिष्ठित पुलित्ज़र पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अलावा बोलिंन्जेन पुरस्कार , राकफेलर फ़ाउण्डेशन पुरस्कार , एडगर एलन पो पुरस्कार सहित तमाम पुरस्कारों और सम्मानों से उन्हें नवाजा गया है। आजकल वह न्यू यार्क के कोलंबिया विश्विद्यालय में पढ़ाते हैं। अनुवाद मेरा है। अनुपस्थिति मैदान में मैदान की अनुपस्थिति हूँ मै ऐसा ही होता है हमेशा मै जहाँ भी होता हूँ

बिमलेश त्रिपाठी की कवितायें

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इस बार प्रस्तुत हैं युवा कवि बिमलेश त्रिपाठी की दो कवितायें। कहानी और कविता में समान रूप से सक्रिय बिमलेश अपनी सूक्ष्म संवेदनाओं तथा गहरी अंतरदृष्टि के लिये जाने जाते हैं। उनसे bimleshm2001@yahoo.com पर संपर्क किया जा सकता है। बूढ़े इंतजार नहीं करते बूढ़े इंतजार नहीं करते वे अपनी हड्डियों में बचे रह गए अनुभव के सफेद कैल्सियम से खींच देते हैं एक सफेद और खतरनाक लकीर और एक हिदायत कि जो कोई भी पार करेगा उसे वह बेरहमी से कत्ल कर दिया जाएगा अपनी ही हथेली की लकीरों की धार से और उसके मन में सदियों से फेंटा मार कर बैठा ईश्वर भी उसे बचा नहीं पाएगा बूढ़े इंतजार नहीं करते वे कांपते – हिलते उबाऊ समय को बुनते हैं पूरे विश्वास और अनुभवी तन्मयता के साथ शब्द-दर-शब्द देते हैं समय को आदमीनुमा ईश्वर का आकार खड़ा कर देते हैं उसे नगर के एक चहल-पहल भरे चौराहे पर इस संकल्प और घोषणा के साथ कि उसकी परिक्रमा किए बिना जो कदम बढ़ाएगा आगे की ओर वह अंधा हो जाएगा एक पारंपरिक और एक रहस्यमय श्राप से यह कर चुकने के बाद उस क्षण उनकी मोतियाबिंदी आँखों के आस-पास

मैं धरती को एक नाम देना चाहता हूँ

मां दुखी है कि मुझ पर रुक जायेगा ख़ानदानी शज़रा वशिष्ठ से शुरु हुआ तमाम पूर्वजों से चलकर पिता से होता हुआ मेरे कंधो तक पहुंचा वह वंश - वृक्ष सूख जायेगा मेरे ही नाम पर जबकि फलती - फूलती रहेंगी दूसरी शाखायें - प्रशाखायें मां उदास है कि उदास होंगे पूर्वज मां उदास है कि उदास हैं पिता मां उदास है कि मैं उदास नहीं इसे लेकर उदासी मां का सबसे पुराना जेवर है वह उदास है कि कोई नहीं जिसके सुपुर्द कर सके वह इसे उदास हैं दादी , चाची , बुआ , मौसी … कहीं नहीं जिनका नाम उस शज़रे में जैसे फ़स्लों का होता है नाम पेड़ों का , मक़ानों का … और धरती का कोई नाम नहीं होता … शज़रे में न होना कभी नहीं रहा उनकी उदासी का सबब उन नामों में ही तलाश लेती हैं वे अपने नाम वे नाम गवाहियाँ हैं उनकी उर्वरा के वे उदास हैं कि मिट जायेंगी उनकी गवाहियाँ एक दिन बहुत मुश्किल है उनसे कुछ कह पाना मेरी बेटी प्यार और श्रद्धा की ऐसी कठिन दीवार कि उन कानों तक पहुंचते-पहुंचते शब्द खो देते है

नये साल पर मनोज छाबरा की दो कवितायें

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( हिसार में रहने वाले मनोज छाबरा कवितायें लिखते हैं , कार्टून बनाते हैं और रंगमंच पर भी सक्रिय हैं। उनका एक संकलन ' अभी शेष है इन्द्रधनुष ' वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। आप उनसे यहाँ मिल सकते हैं।) हिसार हिसार! बिना दरवाजों का एक शहर एकदम खुला सुबह मुर्गे की आवाज़ से नहीं किसी-किसी घर में चिड़ियों की आवाज़ से होती है सबसे पहले इस शहर में बिहार जागता है सच है सारे मुल्क में सबसे पहले बिहार जागता है सबसे पहले बर्तनों में चावल उबलता है शहर जगता है जब लेबर चौक में बिहार दृढ़ता से डटा होता है सैकड़ों कोस दूर मुंबई तक ये समाचार पहुँचता होगा ज़रूर जहाँ मैथिली-भोजपुरी ज़ुबान पर बैठाया जा चुका है कर्फ्यू बिहार का हिसार से रिश्ता है कुछ वैसा ही जैसा मेहनत का प्रगति से यदा-कदा कुछ चिडचिडे लोग मुंबई बना देना चाहते हैं हिसार को परन्तु अगली सुबह वही लोग ढूंढते हैं लेबर चोक में ट्रांजिस्टर साईकिल से बांधे घूमते-फिरते बिहार को हर शाम जब गूज़री-महल के खंडहरों से उड़कर उत्तर