संदेश

मार्च, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ज़हीर कुरैशी की कुछ गजलें

चित्र
ज़हीर कुरैशी हिन्दी ग़ज़ल की दुनिया के एक जाने-पहचाने नाम हैं. ग्वालियर में रहते हुए उनका सानिध्य और आशीर्वाद मेरे लिए एक बेशकीमती तोहफा रहा है. आज उन्हीं की कुछ गज़लें  (एक ) वो हिम्मत करके पहले अपने अन्दर से निकलते हैं बहुत कम लोग , घर को फूँक कर घर से निकलते हैं अधिकतर प्रश्न पहले, बाद में मिलते रहे उत्तर कई प्रति-प्रश्न ऐसे हैं जो उत्तर से निकलते हैं परों के बल पे पंछी नापते हैं आसमानों को हमेशा पंछियों के हौसले ‘पर’ से निकलते हैं पहाड़ों पर व्यस्था कौन-सी है खाद-पानी की पहाड़ों से जो उग आते हैं,ऊसर से निकलते हैं अलग होती है उन लोगों की बोली और बानी भी हमेशा सबसे आगे वो जो ’अवसर’ से निकलते हैं किया हमने भी पहले यत्न से उनके बराबर क़द हम अब हँसते हुए उनके बराबर से निकलते हैं जो मोती हैं, वो धरती में कहीं पाए नहीं जाते हमेशा कीमती मोती समन्दर से निकलते हैं (दो)  यहाँ हर व्यक्ति है डर की कहानी बड़ी उलझी है अन्तर की कहानी शिलालेखों को पढ़ना सीख पहले तभी समझेगा पत्थर की कहनी रसोई में झगड़ते ही हैं बर्तन यही है यार, हर घर की कहानी क

मैं बस डरता हूँ तुम्हारे खतरनाक इरादों से.

चित्र
शमशाद इलाही अंसारी "शम्स" की ये कवितायें अपने कथ्य से गहरे प्रभावित करती हैं. इनमे एक सतत विद्रोह है जो अपनी स्थूलता के बावजूद प्रभावित करता है. धार्मिक कट्टरपन और पूँजी के तमाशे के बरक्स ये उम्मीद जगाने वाली कवितायें हैं मुझे स्वीकार नहीं =========== मुझे वो गुंबद मत दिखा .. वो मीनारें वो इबादतगाहें उनसे जुडी कहानियाँ युद्ध के किस्से मज़हब की खाल में घुसे वो सियासी हमले वो फ़ौजी छावनियाँ वो फ़ौज़ी अभियान घोडों की टापों से रौंदा गया धरती का एक बडा भू - भाग जिसे नाम दिया था तुम्हारे दंभ ने - दुनिया उद्घघोषित किया था तुमने अपने से पूर्वकाल को अंधकार और जहालत .. मैं डरता हूँ उन खूनी किस्सों से सीना पीटती सालाना छातियों से गली - चौराहों पर इंसानी खून बहाते जवान खू़न से कभी न खत्म होने वाली इस रिवायत से बढती हुई दाढ़ियों से वक्त को बदलने से रोकने की तुम्हारी दुस्साहसी कवायद से तुम्हारे अंहकार से तुम्हारे अंतिम सत्य से तुम्हा

अजनबी मुस्कराहटों और अभेद्य चुप्पियों के बीच

चित्र
( यह कविता सबसे पहले अनुनाद पर छपी थी…फिर तय हुआ कि संकलन का शीर्षक यही हो…अब संकलन आया है तो इस कविता की दुबारा याद आई, संकलन शिल्पायन से आया है…मित्र 011-22326078 से संपर्क कर मंगा सकते हैं) लगभग अनामन्त्रित उपस्थित तो रहे हम हर समारोह में अजनबी मुस्कराहटों और अभेद्य चुप्पियों के बीच अधूरे पते और गलत नंबरों के बावजूद पहुंच ही गये हम तक आमंत्रण पत्र हर बार हम अपने समय में थे अपने होने के पूरे एहसास के साथ कपड़ों से ज्यादा शब्दों की सफेदियों से सावधान हम उन रास्तों पर चले जिनके हर मोड़ पर खतरे के निशान थे हमने ढ़ूंढ़ी वे पगडंडियां जिन्हें बड़े जतन से मिटाया गया था भरी जवानी में घोषित हुए पुरातन और हम नूतन की तलाश में चलते रहे... पहले तो ठुकरा दिया गया हमारा होना ही चुप्पियों की तेज धार से भी जब नहीं कटी हमारी जबान कहा गया बड़े करीने से - अब तक नहीं पहचानी गयी है यह भाषा हम फिर भी कहते ही गये और तब कहा गया एक शब्द- 'खूबसूरत' जबकि हम खिलाफ थे उन सबके जिन्हें खूबसूरत कहा जाता था जरूरी था खूबसूरती के उस बाजार से गुजरते हुए खरीदार होना हमारे पास क

दुख की हरियरी फसल

चित्र
पेंटिंग यहां से साभार दर्द सिर्फ़ नसों में पिन्हां नहीं होता दर्द आंसुओं की उदास नमी में ही नहीं हँसी की टटका धूप में भी पनप सकती है दुख की हरियरी फसल समय को रस्सियों सी बटती सख़्त हथेलियों की लक़ीरों में बसी कालिख सा चुपचाप जगह बनाता है दर्द हम खड़ी करते रहते हैं पथरीली दीवारें चारों ओर और एक दिन चींटियों सा सिर झुकाये चला आता दर्द चुपचाप दवाईयों से दब जायें जो दर्द नहीं महज बीमारियाँ हैं वे !