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परेशान दोस्तों के लिए एक कविता

परेशान दोस्तों के लिए एक कविता चला जाऊँगा एक दिन जैसे हर दिन चला जाता है कभी न लौटने के लिए चला जाऊँगा जैसे चला जाता है सभा के बीच से उठकर कोई जैसे उम्र के साथ जिंदगी से चले जाते हैं सपने तमाम जैसे किसी के होठों पर एक प्यास रख उम्र चली जाती है इतने परेशान न हो मेरे दोस्तों कभी सोचा था बस तुम ही होगे साथ और चलते रहेंगे क़दम खुद ब खुद बहुत चाहा था तुम्हारे कदमो से चलना किसी पीछे छूट गए सा चला जाऊँगा एक दिन दृश्य से बस कुछ दिन और मेरे ये कड़वे बोल बस कुछ दिन और मेरी ये छटपटाहट बस कुछ दिन और मेरे ये बेहूदा सवालात फिर सब कुछ हो जाएगा सामान्य खत्म हो जाऊँगा किसी मुश्किल किताब सा कितने दिन जलेगी दोनों सिरों से जलती अशक्त मोमबत्ती भभक कर बुझ जाऊँगा एक दिन सौंपकर तुम्हें तुम्हारे हिस्से का अन्धेरा उम्र का क्या है खत्म ही हो जाती है एक दिन सिर्फ साँसों के खत्म होने से ही तो नहीं होता खत्म कोई इंसान एक दिन खत्म हो जाऊँगा जैसे खत्म हो जाती है बहुत दिन बाद मिले दोस्तों की बातें एक दिन रीत जाउंगा जैसे रीत जाते है गर्मियों में तालाब एक मुसलसल असुव

अगर सावधान नहीं हैं आप

उनके हाथों में नहीं होगा कोई हथियार कोई गणवेश नहीं शरीर पर शब्दों से खेलते हुए आयेंगे आपके बिल्कुल करीब बोलते - बतियाते एकदम आपकी ही भाषा में इतने क़रीब होंगे वे कि पड़ोसी से अधिक मित्रता के भ्रम उपजेंगे किसी सुबह जब अलसाई आंखों से देखेंगे उन्हें लगेगा आईने में देख रहे हैं आप अपना ही अक्स चुपचाप रख देंगे काँधे पर हाथ और गहरा हो जायेगा आपका दुख मुस्कुरायेंगे इतने अपनेपन से कि उजली हो जायेगी आपकी हँसी सुनते हुए कवितायें कुछ ऐसे फैल जायेंगी उनकी आँखें कि धन्य हो जायेंगे आप विरोध अनुपस्थित उनके शब्दकोश में प्रशंसाओं से कर देंगे अवश फिर चुपचाप कविताओं में रख देंगे कुछ शब्द और आप चाह कर भी नहीं कर पायेंगे प्रतिवाद जहाँ आपने लिखा होगा ‘ हत्यारा ’ वहाँ लिख देंगे ‘ इंसान ’ जहां आपने ‘ हत्या ’ लिखी होगी वहाँ ‘ क़ानून ’ शहीदों की जगह मृतक बैठ जायेंगे चुपचाप और जहां प्रतिरोध लिखा होगा आपने जमाकर वहां चुनाव लिखकर मुस्करा देंगे वे और इस तरह धीरे - धीरे करेंगे वे आपकी काया में प्रवेश हत्य

कोई छुपा हुआ अफ़सोस

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प्रशान्त श्रीवास्तव  से मेरा परिचय सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर ही हुआ था। फिर कविता समय के आयोजन में उनका और अर्पिता बिना किसी सूचना के आना और फिर बिना किसी तकल्लुफ़ के और बिना किसी उम्मीद के उस आयोजन में शामिल होना उनके कविता के प्रति प्रेम का स्पष्ट परिचायक था। प्रशान्त ने वहाँ कविता भी नहीँ पढ़ी थी। इधर फेसबुक पर उनकी छिटपुट कवितायें पढ़ी। प्रशांत की कवितायें पढ़ते हुए मुझे एक तरह की सघनता और अंतर्द्वंद्व का एहसास हमेशा हुआ है। वह जैसे बहुत कुछ कहना चाहते हैं और इसके लिये कविता के पारंपरिक फ़ार्मेट से उलझते हैं। यहाँ दी गयी कुछ कविताओं को पढ़ते हुए आपको उन संभावनाओं का सहज पता चलेगा जो प्रशांत का कवि बड़ी शिद्दत से तलाश रहा है। जगह मकड़ी के जाले बार-बार बनते हैं वहीं जहाँ छत मिलती है दिवारों से और धूल दिखती है कुछ दिनों बाद फ़िर उसी जगह जहाँ से झाड़ दी गई थी वह. जमाई हुई अलमारी में है एक खाना संभालने के लिये कुछ पुराने खत जैसे बीच बाजार बड़ी दुकानों के पीछे कब से चल ही रहा है कबाड़ीये का कारोबार जमीन पर पड़े उस सूखे पीले पत्ते पर लुढ़कने को तत्पर सी ओस की वो बूंद भी तब थी अ