संदेश

मई, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ख़ुतूत-ए-मोहब्बत पढ़ना हयात-ए-इश्क में कुरानख़्वानी है

चित्र
२६ मई, १९६५ को जन्मे प्रेमचंद गांधी जयपुर में रहते हैं और राजस्थान प्रलेस के महासचिव हैं. उनका एक कविता संकलन 'इस सिम्फनी में ' प्रकाशित है. उन्हें मिले सम्मान हैं- पं0 गोकुलचन्द्र राव सम्मान - सांस्कृतिक लेखन के लिए(2005);जवाहर कला केन्द्र, जयपुर द्वारा लघु नाटक ‘रोशनी की आवाज’ पुरस्कृत (2004); राजेन्द्र बोहरा स्मृति काव्य पुरस्कार ‘इस सिम्फनी में’ के लिए (2007); लक्ष्मण प्रसाद मण्डलोई सम्मान ‘इस सिम्फनी में’ के लिए (2007) . उनकी ये कविताएँ उनके कविता संसार की विविधता का परिचय तो देती ही हैं साथ में उनके संवेदना के स्रोतों का पता भी देती हैं... चाहत लौटने की मैं फिर वहीं लौटना चाहता हूं कविता की उसी दुनिया में जहां सितारों की रोशनी-सी कविताएं फूटती हैं जहां एक पत्ता झड़ता है तो नई कोंपलें फूटने लगती हैं मैं इसी पृथ्वी पर रहना चाहता हूं जहां कुदरत से खिलवाड़ करने वालों ने मौसम का चक्र बदल दिया है जहां पूंजी की रक्त-पिपासा जंगल और आदिवासियों का सफाया कर रही है मैं वहीं रहना चाहता हूं जहां कविता की जरूरत मनुष्य को उम्मीद की तरह हो उम्मीद जो वनवासियो

राशिद अली की एक गजल बंगाल में 'लेफ्ट' की हार को समर्पित

कहीं रतजगों के वो बेनवा कहीं ज़ब्ते गम का हिसाब है वो जो ख्वाब था किसी और का किसी और का ही वो ख्वाब है वो जो लाम था किसी दौर का वो जो काफ था किसी और का वो न लफ्ज़ में ही सिमट सका न ही जेरे शेरे सहाब है जिन्हें नाज़ था किसी माह पे जिन्हें शर्फ़ था किसी ताब पे किसी शब् गज़ीदा सहर तले वो तो कुहना मशकी अताब है क्या गिरिफ्ताज़न था वो फलसफा क्या तबीब था वो मरीज़े नौ किसी बादा चश का नसीब था या की मुफलिसी का निसाब है वो करीब थे कई और दिन, कई और दिन वो रकीब थे क्या नकाहतों का ये इश्क था या कनाअतों का शबाब है किस बदमज़ा से मक़ाम पे कहीं छोड़ आया था वो चारागर चलो हाय कुछ तो सही हुआ जो ग़लत हुआ वो सवाब है ये जम्हूर है या या तिलिस्म है जो फंसा है धंस के फंसा रहे कहीं खाके मुर्दा गिरास है कहीं तिशनगी का सेराब है मुश्किल शब्दों के हिन्दी-अंग्रेजी मानी ज़ब्ते गम -- Not expressing the pain (दर्द को प्रकट न करना) लाम-- an alphabet of Urdu, it can also mean la of laal. (उर्दू वर्णमाला का

महेश चंद्र पुनेठा की कविताएँ

चित्र
१० मार्च १९७१ को पिथौरागढ़ के एक गाँव में जन्मे कवि महेश चन्द्र पुनेठा हिन्दी काव्यजगत में अपनी सघन संवेदना और प्रखर पक्षधरता के लिए जाने जाते हैं. उनका पहला संकलन ' भय में अतल ' पिछले साल आया था और इसके लिए उन्हें प्रतिष्ठित सूत्र सम्मान से सम्मानित भी किया गया था. महेश चन्द्र पुनेठा की कविताओं में उनका पहाड़ का परिवेश तो अपनी पूरी धमक के साथ है ही, वे इस नव उदारवादी समय में मनुष्यता और बाज़ार के बीच के अंतर्विरोधों की भी बखूबी पहचान करते हैं. प्रस्तुत हैं उनकी कुछ नई-पुरानी कविताएँ ... संतोषम् परम् सुखम् पहली-पहली बार  दुनिया बड़ी होगी एक कदम आगे  जिसके कदमों पर  अंसतोषी रहा होगा वह पहला। किसी असंतुष्ट ने ही देखा होगा  पहली बार संुदर दुनिया का सपना  पहिए का विचार आया होगा  पहली-पहली बार  किसी असंतोषी के ही मन में  आग को भी देखा होगा पहली बार गौर से  किसी असंतोषी ने ही । असंतुष्टों ने ही लाॅघे पर्वत पार किए समुद्र  खोज डाली नई दुनिया  असंतोष से ही फूटी पहली कविता  असंतोष से एक नया धर्म  इतिहास के पेट में  मरोड़ उठी

मैंने उसे बताया कि मैं लिखता हूँ कविता तो वह उदास हो गया

चित्र
आज असुविधा पर नागपुर में रहने वाले कवि पुष्पेन्द्र फाल्गुन की कवितायें...साथ में उन्हीं द्वारा भेजा परिचय पिता हरिराम मिश्र एक कोयला मजदूर रहे. माँ गृहिणी. सेवानिवृति के पश्चात पिता किसानी कर रहे हैं मध्य प्रदेश के सबसे पिछड़े जिले रीवा के एक अत्यंत पिछड़े गाँव चंदई में.मैं नागपुर में रहता हूँ. यहीं से एक मासिक पत्रिका 'फाल्गुन विश्व' का प्रकाशन-संपादन कर रहा हूँ. पूर्णकालिक मसिजीवी हूँ. जीवन यापन के लिए पत्रकारिता, अनुवाद एवं विज्ञापन एजेंसियों के लिए कॉपी राइटिंग करता रहता हूँ. २००७ में वागर्थ के कविता नवलेखन प्रतियोगिता में पुरस्कृत हुआ. पत्र-पत्रिकाओं में कभी रचनाएं नहीं भेज पाया. पहली और आखरी बार वागर्थ में ही छपी हैं कविताएँ. २००७ में ही १९९७ में छपने गई कविता की किताब 'सो जाओ रात' छाप कर आई, नागपुर के विश्वभारती प्रकाशन से. जादू! माँ की उम्मीद पिता के विश्वास पत्नी के स्वप्न बेटी की आस बेटे की इच्छा में मिलाता है अपना परिश्रम और बो देता है हड्डियों के जोड़ से निचोड़ कतरा-कतरा पसीने से सींचता है इंच-इंच जमीन कमाल है कि हर साल कपास, सोयाबीन, बाज

रोने की जगह मुस्करा रही थी वह लड़की....

चित्र
नार्मन राकवेल की पेंटिंग 'टायर्ड सेल्सगर्ल आन क्रिसमस ईव'  वह मुस्कराती थी बस मुस्कराए जाती थी लगातार और उसके होठ मेरी  उँगलियों  की तरह लगते थे उसके पास बहुत सीमित शब्द थे जिन्हें वह बहुत संभाल कर खर्च करती थी हम दोनों के बीच एक काउंटर था जो हम दोनों से अधिक ख़ूबसूरत था वह बार-बार उन शब्दों को अलग-अलग क्रमों में दोहरा रही थी जिनसे ठीक विपरीत थी उसकी मुसकराहट  उस वक़्त मैं भी मुस्कुराना चाहता था लेकिन उसकी मुस्कराहट का आतंक तारी था मुझ पर. कोई था उसकी मुसकराहट की आड में    हम दोनों ने नहीं देखा था उसे   वह पक्ष में थी जिसके और मैं विपक्ष में एक पुराने बिल और वारंटी कार्ड के हथियार से मैं हमला करना चाहता था और उसकी मुसकराहट कह रही थी कि बेहद कमजोर हैं तुम्हारे हथियार मेरे हथियारों की कमजोरी में उस अदृश्य आदमी की ताकत छुपी हुई थी कहीं नहीं था वह आदमी उस पूरे दृश्य में हम ठीक से उसका नाम भी नहीं जानते थे हम जिसे जानते थे वह नहीं था वह आदमी पता नहीं उसके दो हाथ और दो पैर थे भी या नहीं पता नहीं उसका कोई नाम था भी या नहीं जो चि

सिराज फैसल खान की ग़ज़लें

चित्र
सिराज फैसल खान से मेरी मुलाक़ात फेसबुक पर हुई. महज बीस साल के फैसल की ग़ज़लें पढते हुए अक्सर लोगों को हैरत होती है. ये एक तरफ जहाँ उर्दू-हिन्दी की प्रगतिशील परम्परा से जुडती हैं तो दूसरी तरफ अपने समय के सवालों से सीधी रु ब रु हैं. आज असुविधा पर उनकी चार गजलें. परिचय - 10 जुलाई 1991 को शहीदोँ के नगर शाहजहाँपुर(उप्र) के एक छोटे से गाँव महानंदपुर मेँ जन्म। प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के प्राथमिक स्कूल मेँ और उसके बाद इन्टरमीडिएट तक शाहजहाँपुर के इस्लामियाँ इन्टर कॉलेज मेँ पढ़ाई की। वर्तमान मेँ गाँधी फैज़ ए आम डिग्री कॉलेज शाहजहाँपुर मेँ बी एस सी बायोलॉजी के छात्र। कुछ वेब पत्रिकाओं में ग़ज़लें प्रकाशित (एक) डूब गया मैँ यार किनारे पर वादोँ की कश्ती मेँ और ज़माना कहता है कि डूबा हूँ मैँ मस्ती मेँ जिस दिन उनका हाथ हमारे हाथोँ मेँ आ जाएगा सच कहता हूँ आ जाएगी दुनियाँ मेरी मुठ्ठी मेँ ठीक से पढ़ भी नहीँ सका और भीग गईँ पलकेँ मेरी मीर को रखकर भेज दिया है ग़ालिब ने इक चिठ्ठी मेँ हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई आपस मेँ सब भाई हैँ सरकारी ऐलान हुआ है आज हमारी बस्ती मेँ रोज़ कमीशन लग के वेतन बढ़ जाता

वे स्वर्ग से निर्वासित आदम हैं

चित्र
१९९३ में नीलाभ प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ कवि महेश्वर का संकलन 'आदमी को निर्णायक होना चाहिए' मेरे पास उसी वर्ष से हमेशा साथ रहा है. अपनी बीमारी के दौरना पी जी आई चंडीगढ़ के एक बिस्तर पर लिखीं उनकी इन कविताओं का खरापन मुझे हमेशा से रोमांचित करता रहा है. आज उन्हीं में से एक कविता 'अंतरर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस' पर क्रांतिकारी अभिनंदन के साथ रौशनी के बच्चे मत करो उन पर दया मत कहो उन्हें- 'बेचारी गरीब जनता' या, इसी तरह कुछ और मत करो उनकी यंत्रणाओं का बयान छेडो मत उनकी सदियों पुरानी भूख और बीमारी की लंबी दास्तान मत कहो तबाही-बदहाली-लाचारी और मौत जो कि निरे शब्द हैं उनकी जागृत जिजीविषा के सामने टिसुए मत बहाओ अगर उन्हें समझा जाता है समाज का तलछट और फेंकी जाती है मदद मुआवजे के बतौर वे झेल आये हैं इतिहास की गुमनामी वे वर्तमान में खड़े हैं भविष्य में जायेंगे उन्हें नहीं चाहिए हमदर्दी की हरी झंडी उनकी नसों में उर्वर धरती का आवेग है उनके माथे पर चमकता है जाँगर का जल उनके हाथ की रेखाओं से रची जाती है सभ्यता की तस्वीर उनकी बिवाइयों स