संदेश

जून, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अपना-अपना मानसून

चित्र
बारिश देश भर में शुरू हो गयी है...हर किसी का इसे देखने का अपना नज़रिया है...असुविधा पर देखिये इसे कवि मनोज छाबड़ा की आँखों से... मानसून की पहली बारिश है मानसून की पहली बारिश है और पूरब से आये मज़दूर लौट रहे हैं अपने गाँव ये उनके घर बह जाने के दिन हैं पानी के साथ उनके सपनों के बह जाने के दिन हैं डरते-डरते लौटते हैं मज़दूर अपने गाँव वे तैयार हैं घर के बह जाने के लिए वे सहमे हैं -- ये उनके बच्चों के बह जाने के दिन न हों न हों पत्नी, माँ-बाप के खो जाने के दिन ट्रेन को देखते हैं और पटरी पर बहते लोहे के पहियों को देखकर कांप जाते है...

नीरा त्यागी की कविताएँ

चित्र
परिचय जन्म स्थान - नयी दिल्ली शिक्षा - मिरांडा हाऊस, दिल्ली यूनिवर्सिटी से विज्ञान में स्नातक., PGCE, Dip HE Housing From Leeds University, ब्रिटेन के सरकारी प्रोजेक्ट्स में मैनेजर की नौकरी असुविधा में इस बार नीरा त्यागी की कविताएँ. नीरा के ब्लॉग ' काहे को ब्याहे विदेश ' से परिचय लगभग तीनेक साल पुराना है. एक बेहद समृद्ध भाषा में उनका गद्य केवल प्रवासी पीड़ा से संचालित नहीं होता बल्कि उसमें स्त्री ह्रदय और संसार की तमाम पीडाएं, अंतर्विरोध और उलझनें आकार लेती हैं. यही उनकी कविताओं के बारे में भी कहा जा सकता है. लंबे समय से ब्रिटेन में रह रहीं नीरा की कविताएँ अकेलेपन और पितृसत्ता के महीन रूपों के खिलाफ विद्रोह से जन्मी हैं. 1. क्या दिन क्या रात... वज़ह नही हालत नही जज्बा नही आस नही फिर भी ख़ुद को नही खामोशी तोड़ो कलम की आवाज़ से धो डालो दुनिया के अवसाद स्याही के धार से तूफ़ान को निगला कई बार हवा का रुख बदल दो इस बार ना बदली दुनिया ना रोशन हुए रास्ते नजर

सांप्रदायिक दंगे - रवि पाठक की आठ कविताएँ

चित्र
पेंटिग यहाँ से साभार रवि पाठक ने ये कविताएँ असुविधा के लिए कुछ दिनों पहले भेजी थीं. दंगों पर एक सीरीज में लिखी गयीं इन कविताओं में न तो सर्वधर्म समभाव की पिटीपिटाई लीक है, न ही संवेदना के नाम पर अतिरंजित घटनाओं की तलाश. यह जनता के बीच रहकर उस त्रासदी की पूरी प्रक्रिया को देख तथा भोग रहे एक संबद्ध कवि का पोएटिक आब्जर्वेशन है. इसमें हमारे समय का पूरा समाज अपने असली चेहरे के साथ दंगों में अपने-अपने तरीके से पार्टिसिपेट करता दिखाई देता है. असुविधा की ओर से उनका स्वागत... दंगे के सौन्दर्यशास्त्री विभिन्न दंगों के प्रति राय अलग है उनकी घुस जाते हैं दंगों में चाय बिस्कुट के साथ दंगे के सौन्दर्यशास्त्री चुसकियाते - मुसकियाते गहन गोपन मंथन गढ़मुक्तेश्वर में मुसलमान ज्यादा मारे गए नोआखाली में हिन्दू ज्यादा हुए थे शिकार दिल्ली दंगे में बराबर की टक्कर थी उस समय के दंगों की बात ही कुछ और है !! चैरासी के सिख विरोधी दंगे को ज्यादा तवज्जो नहीं देते मेरठ और भागलपुर कुछ कुछ आजादी के दिनों की याद दिलाती है !! कुछ दंगों में औरत ज्यादा शिकार हुई बच्चे ज्यादा मरे कहीं कु

ढोया हुआ सलीब मुझ तक आ गया है !

चित्र
वन्दना शर्मा की यह कविता मुझे फेसबुक मैसेज पर मिली थी. सिर्फ पढ़ने के लिए...फिर कई बार पढ़ी गयी...हर बार पहले से अधिक उद्वेलित करती. इसका शिल्प छायावाद और छंद से मुक्ति के तुरत बाद वाला अतुकांत छंद का शिल्प है जिसमें एक सहज गीतात्मकता देखी जा सकती है...लेकिन सीता के पारम्परिक आख्यान से टकराते इस कविता के कथ्य साथ उसका प्रभाव बेहद मारक हो गया है. न केवल यह कविता उस पारंपरिक आख्यान में अन्तर्निहित पितृसत्ता की स्थापना के स्रोतों की तलाश करती है बल्कि उसके खिलाफ एक सशक्त प्रतिरोध भी करती है. इस कविता को बहुत गौर, धैर्य और सहानुभूति से पढ़े जाने की ज़रूरत है. कहो सीते , वह अपूर्ण जीवन जीते ... सो गए क्या स्वप्न सारे जनक गेह में गले लग विदेह के... जब सहेजे शब्द सिन्दूरी ... पति सेवा ही धर्म आज्ञापालन कर्म ! कर गईं तिरोहित हल्दी की थापों में... शिव धनुष उठा सहज रख देने का भाव .. आंसू का वह संविधान जिसमे तुम ढाली गईं मुझ तक आ गया है .....! नाम तुम्हारा नहीं रहा प्रिय कभी सुता के हेतु.... रहा शिला सा गति बाधित बन काले धागों का अन्धकार.. तुम स्वगत कथन सी मौन उधर थीं आशाएं निस्