संदेश

जुलाई, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मैं उन्हीं सबमें हूं जो मेरे भीतर हैं

चित्र
इस बार प्रस्तुत कर रहा हूँ रंगमंच से जुड़े कवि मृत्युन्जय  प्रभाकर की कविताएँ. यह मेरा भी उनकी कविताओं से पहला ही परिचय था. यह देखना सुखद है कि इस युवा कवि का अनुभव संसार व्यापक है जिसके केन्द्र मे मनुष्य है. मृत्युन्जय के पास आपके अकेलेपन और आपके संघर्ष के क्षण, दोनो के लिए कविताएँ हैं. हालांकि उनकी भाषा को अभी और पकना है, शिल्प को अभी और बेहतर आकार लेना है लेकिन उनकी कविताएँ इस सम्भावना का  स्पष्ट  पता देती हैं. जल्द ही आप असुविधा पर उनकी कुछ और कविताएँ भी पढ़ेंगे. मैं हूं  गेहूं की बालियों मटर के दानों चावल की बोरियों आलू के खेतों में बनमिर्ची के झुरमुटों आम के दरख्तों जामुन की टहनियों अमरूद के पेड़ों में गांव की गलियों खेतों की पगडंडियों सड़कों के किनारों शहरों की परिधि में रात की चांदनी सहर के धुंधलके शाम की सस्ती चाय दोपहर के सादे भोजन में साइबरस्पेस के किसी कोने ब्रह्मांड के किसी  छोर  मित्रों-परिचितों की याद आत्मीयों के प्यार में मैं उन्हीं सबमें हूं जो   मेरे भीतर हैं। कितना कुछ कितना कुछ छूट जाता है कितना कुछ याद रह जाता है कितना क

सिर्फ हुसैन के लिए नहीं....

चित्र
बहुत दिनों बाद आज अपनी एक कविता.... माफीनामा मैं एक सीधी रेखा खींचना चाहता हूँ मैं अपने शब्दों में थोड़ी सियाही भरना चाहता हूँ कुछ आत्मस्वीकृतियाँ करना चाहता हूँ मैं और अपनी कायरता के लिए माफी माँगने भर का साहस चाहता हूँ मैं किसी दिन मिलना चाहता हूँ तमाम शहरबदर लोगों से मैं अपने शहर के फक्कड़ गवैये की मजार पर बैठकर लिखना चाहता हूँ यह कविता और चाहता हूँ कि रंगून तक पहुंचे मेरा माफीनामा. मैं लखनऊ के उस होटल की छत पर बैठ किसी सर्द रात ‘रुखसते दिल्ली’ पढ़ना चाहता हूँ इलाहाबाद की सड़कों पर गर्म हवाओं से बतियाते भेडिये के पंजे गिनना चाहता हूँ मैं जे एन यू के उस कमरे में बैठ रामसजीवन से माफी मांगना चाहता हूँ मैं पंजाब की सड़कों पर पाश के हिस्से की गोली और मणिपुर की जेल में इरोम के हिस्से की भूख खाना चाहता हूँ   मैं साइबेरिया की बर्फ से माफी मांगना चाहता हूँ मैं एक शुक्राना लिखना चाहता हूँ हुकूमत-ए-बर्तानिया और बादशाह-ए-कतर के नाम 

विजय सिंह के जन्मदिन पर बधाई....

चित्र
आज मेरे मित्र और हिन्दी के महत्वपूर्ण कवि विजय सिंह का जन्मदिन है. समकालीन सूत्र के संपादक विजय जनपदीय चेतना के कवि हैं जिनकी कविता में छत्तीसगढ़ सांस लेता है...'बंद टाकीज' उनका संकलन और उनके घर का पता ही नहीं, छात्तीसगढ़ का भी पता है....अपनी खुशियों, अपने दुखों और अपनी विडंबनाओं के साथ उनका देस उनकी कविताओं में आकार लेता है. उनके सक्रिय और रचनात्मक जीवन के एक और वर्ष के लिए ढेरों शुभकामनाएँ...और यह उपहार...  यश के लिए अँधेरे की काया पहन चमकीले फूल की तरह खिल उठती है रात अँधेरा, धीरे से लिखता है आसमान की छाती पर सुनहरे अक्षरों से चाँद-तारे और मेरी खिड़की में जगमग हो उठता है आसमान अक्सर रात के बारह बजे मेरी नींद टूटती है खिड़की में देखता हूँ चाँद को तारों के बीच हँसते-खिलखिलाते ठीक इसी समय नींद में हँसता है मेरा बेटा बेटे की हँसी में हँसता है मेरा समय। डोकरी फूलो धूप हो या बरसात ठण्ड हो या लू मुड़ में टुकनी उठाए नंगे पाँव आती है दूर गाँव से शहर दोना-पत्तल बेचने वाली डोकरी फूलो डोकरी फूलो को जब भी देखता हूँ देखता हूँ उसके चे

एक सीधी सादी लकीर

चित्र
11 नवंबर 1963  को ग्राम मिर्चा, जिला: गाजीपुर, उत्तर प्रदेश में जन्में तथा फिलहाल  बरेली के पास खटीमा , उत्तराखंड  में रहने वाले कवि सिद्धेश्वर सिंह   जी से मेरा संपर्क कबाडखाना और कर्मनाशा के माध्यम से है. अपनी कविता में बेहद सहज और संबद्ध तरीके से जीवन और समाज की छोटी-छोटी विडंबनाओं के सहारे एक विराट वितान रचने वाले सिद्धेश्वर अपने अनुवादों के लिए भी जाने जाते हैं. उनकी कुछ और कविताएँ यहाँ पढ़ी जा सकती हैं.   निरगुन सादे कागज पर एक सीधी सादी लकीर उसके पार्श्व में एक और सीधी- सादी लकीर। दो लकीरों के बीच इतनी सारी जगह कि समा जाए सारा संसार। नामूल्लेख के लिए इतना छोटा शब्द कि ढाई अक्षरों में पूरा जाए कार्य व्यापार। एक सीधी सादी लकीर उसके पार्श्व में एक और सीधी- सादी लकीर शायद इसी के गुन गाते हैं अपने निरगुन में सतगुरु कबीर। उलटबाँसी दाखिल होते हैं  इस घर में हाथ पर धरे निज शीश। सीधी होती जाती हैं उलझी उलटबाँसियाँ अपनी ही कथा लगती हैं  सब कथायें। जिनके बारे में  कहा जा रहा है कि मन न भए दस बीस। कर्मनाशा