ओबामा के रंग में यह कौन है- लीलाधर मंडलोई
ख्यात और अब वरिष्ठ हो चले कवि लीलाधर मंडलोई की यह कविता कल भाई कुमार मुकुल की फेसबुक वाल पर पढ़ी. पढने के बाद जिस कदर रोमांचित हुआ, मंडलोई जी को फोन लगाने से खुद को रोक नहीं पाया. पर उस तरफ उतनी ही निस्पृह आवाज़ थी...प्रशंसा की तमाम कोशिशों को अपने ठहाके से असफल करने के बाद पूछती हुई - 'तू दिल्ली आता है तो मिलता क्यूँ नहीं?' खैर, यह कविता मुझे हर पाठ के बाद और रोमांचित कर रही है. अभी तुरत इस पर कुछ लंबा लिख पाने की हालत में हूँ नहीं. इतना ज़रूर कहूँगा कि हमारे समय में यह एक बड़े सच से टकराती हुई, सवाल करती हुई एक ऎसी कविता है जहाँ कवि किसी ऊंचे मंच से प्रवचन नहीं कर रहा, बल्कि भीड़ के बीच बोलने-बतियाने-सवाल करने की कोशिश कर रहा है. बाक़ी आप बताइये.. . ओबामा के रंग में यह कौन है... मैं पढा-लिखा होने के गर्व से प्रदूषित हूं मैं महानगर के जीवन का आदी, एक ऐसी वस्तु में तब्दील हो गया हूं कि भूल-बैठा अच्छाई के सबक मेरा इमान नहीं चीन्ह पाता उन गुणों को और व्यवहार को, जो आदिवासियों की जीवन-पद्धति में शुमार मौलिक और प्राकृतिक अमरता है और एक उम्