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रास्ता तो वह है जो कहीं जाता भी हो

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बलिया में रहने वाले रामजी तिवारी ने ये कविताएँ मुझे कुछ दिनों पहले भेजी थीं. इसके पहले मैं इनके लेख समयांतर में पढता रहता था...इन कविताओं के माध्यम से रामजी का कवि रूप देखना मेरे लिए सुखद था. सीधी-सादी कविताएँ जिनमें हमारे समय के तमाम उबड़खाबड़ सच झांकते हैं और इनके बरक्स कवि अपनी ज़मीन पर खड़ा होकर पूरे परिदृश्य को अपनी निगाह से देखने और देखे को पूरी ताक़त से कहने की कोशिश कर रहा है...बिना डरे..बिना लड़खडाए...मेरी नज़र में यह आज के किसी भी कवि के लिए कविता लिखने की पूर्वशर्त है....  1.      भ्रम  उछालते हैं शब्दों को देह बनाकर हम भरता है समाज उनमें आत्मा शब्द जीवन्त हो उठते हैं टपकने लगता है उनसे अर्थ। होता ही है भ्रम देहवालों को आत्मावालों का अब देखा है। मरे हुए बछड़े की खाल में भूसा भरकर दिया जा सकता है गाय को धोखा परन्तु लोक तो जानता ही है यह उसके प्रेम की सजा है। भरमार है आज आत्माओं से सूनें मरे हुए शब्दों की देखिए ना इस चमकदार शब्द को तंत्र की देह तो मर गयी चली गयी लोक की आत्मा अब यदि लूट का भूसा भरकर कोई हम दूह दे और समाज उस दूध को मंदिर

ईश्वर के साथ बैठ कर भुट्टे खाने की जंगली इच्छा - बाबुषा कोहली

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बाबुषा कोहली   की कविताओं पर लिखना आसान नहीं. सबसे पहले तो यह कि उसे किसी तयशुदा फ्रेम में नहीं रखा जा सकता है. उसकी कविताएँ बाहर से देखने में एक मस्तमौला मन की मस्ती लग सकती है...लेकिन जैसे-जैसे आप भीतर प्रवेश करते हैं वैसे-वैसे आपको उन कविताओं के शिल्प, शब्द-चयन और कथ्य के साथ किये गए ट्रीटमेंट के पीछे की मेहनत दिखाई देती है जो किसी चमत्कार की आकाँक्षा से नहीं बल्कि उसकी जेनुइन तड़प से निकले हैं. उसकी चिंताओं में पता नहीं क्या-क्या है...वह क्या-क्या और कैसे-कैसे सोचती रहती है और उस तलाश में कितना कुछ करती है, कभी उसकी कविताओं पर विस्तार से लिखने का मन है...अभी सीधे उसकी कविताएँ. दस दिन और ग्यारह रातें  कठोर हैं लाल स्याही के वे छल्ले जो छिले हुए कैलेंडर की ओर बिना देखे कुछ तिथियों की परिक्रमा करते हैं.... निर्लज्ज है वे तिथियाँ जो रेत के दरिया में आधे डूबे 'ऑज़ीमैनडियास' के पैरों के जोड़े की मानिंद तनी हुयी हैं एक क्षण है जिस पर कांटेदार बाड़ बंधी है इस क्षण के ह्रदय में ही समाहित है एक युग जो कटता नहीं / पर एक दिन कट ही जाएगा क्रॉसिंग पर कारों का