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आह, त्रिलोचन को भूला मैं

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शिरीष कुमार मौर्य   हिन्दी की युवा कविता को पहचान देने वाले कवि हैं. उनकी कविताओं से तो हम सब परिचित हैं ही, लेकिन गद्य में भी उन्होंने खूब काम किया है. शिरीष भाई की आलोचना की एक बड़ी खूबी यह है कि वह एक बोझिल प्राध्यापकीय भाषा और उद्धरणों के सहारे बौद्धिकता का आतंक पैदा करने की जगह अपनी कविताओं की तरह ही गद्य में भी एक आत्मीय वातावरण रचते है. इधर  एक अच्छा काम उन्होंने यह किया है कि अब तक के लिखे को एक किताब के रूप में ले आए हैं. भला हो उनके मित्र का जिसने उनसे यह काम करा लिया. अब खबर यह है कि किताब का पहला संस्करण पहले तीन महीनों में बिक चुका है और अब अगला संस्करण शिल्पायन से शीघ्र होगा. हम जैसे ढीठ और कभी न संतुष्ट होने वाले दुष्ट दोस्तों के (दु)आग्रह को मानते हुए उन्होंने इसे परिवर्धित करने का भी निर्णय लिया है. ढेर सारी शुभकामनाओं के साथ उनकी इस किताब - "लिखत-पढ़त " से त्रिलोचन पर लिखा एक आत्मीय आलेख. किताब " शाइनिंग स्टार " प्रकाशन से आई है और  ज़्यादा जानकारी के लिए प्रकाशन  प्रबंधक  डी एस  नेगी से 8954341365 पर संपर्क  किया जा सकता है .   नीचे एक

प्रांजल धर की कविताएँ

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प्रांजल हिन्दी की युवतम पीढ़ी के उन कवियों में से हैं जिनकी काव्यचेतना एक तरफ अद्यतन चिताओं और विडम्बनाओं से जुड़ती है तो दूसरी तरह उसकी जड़ें बहुत गहराई से अपनी परंपरा से जीवन रस लेती हैं. विश्व साहित्य के गहरे अध्येता प्रांजल साहित्य के अलावा दर्शन , राजनीति और अन्य विषयों की भी गहरी समझ रखते हैं. उनकी कविताओं में एक खास तरह का विट बेहद तरल रूप में आता है जो उनकी अभिव्यक्ति को और अधिक मारक बनाता है. उनके यहाँ जोर जादूई बिम्बों के सहारे चौंकाने पर नहीं है. बल्कि विडंबनाओं को तार-तार कर देने वाले सहज लेकिन मानीखेज बिम्ब उनकी कविताओं की खासियत हैं. " वक्त की आधी सड़ी पीठ से लिपटता एक कबूतर/   खोजने लगता ख़तो-किताबत में गुम कोई चीज़  " जैसे प्रयोग उनकी अभिव्यंजना की ताकत बताते हैं. यहाँ प्रस्तुत कविताओं को पढ़ते हुए आप इस कवि की संवेदना के स्रोतों और संभावना के आयामों का पता पा सकते हैं.  परिचय-  मई 1982 में  उत्तर प्रदेश के गोण्डा जिले के ज्ञानीपुर गाँव में जन्मे  प्रांजल की  कविताएँ, कहानियाँ, समीक्षाएँ, यात्रा वृत्तान्त और आलेख देश की सभी प्रतिष्ठित पत्र – पत

भगवत ने लोक की आत्मा से हिंदी को समृद्ध किया -विष्णु खरे

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वरिष्ठ कवि भगवत  रावत पर यह श्रद्धांजलि आलेख   विष्णु खरे जी ने भेजा है...इस  अनुमति के साथ कि ' किसी भी ब्लॉग या पत्र-पत्रिका में प्रकाशित किया जा सकता है  ' तो संभव है यह कुछ और जगहों पर प्रकाशित हुआ हो.  13 सितंबर 1939- 25 मई 2012  हिंदी साहित्य जगत बरसों से वाकिफ था कि भगवत रावत गुर्दे की गंभीर बीमारी से जूझ रहे थे.उनका यह लंबा संघर्ष उनकी ऐहिक और सृजनात्मक जिजीविषा का प्रतीक था और कई युवतर,समवयस्क और वरिष्ठ लेखकों को एक सहारा,उम्मीद और प्रेरणा देता था.पिछले दिनों तो ऐसा लगने लगा था कि उन्होंने रोग और मृत्यु दोनों पर विजय प्राप्त कर ली है.लिखना तो उन्होंने कभी बंद नहीं किया,इधर वे लगातार भोपाल की सभाओं,संगोष्ठियों और काव्य-पाठों में किसी न किसी वरिष्ठ हैसियत से भाग ले रहे थे.उनसे अब उनकी तबीयत के बारे में पूछना चिन्तातिरेक लगने लगा था.जो कई पत्र-पत्रिकाओं में और सार्वजनिक आयोजनों में प्रतिष्ठित कवि और एक हड़काऊ किन्तु स्नेहिल बुजुर्ग की तरह सक्रिय हो,उसकी मिजाजपुर्सी एक पाखण्ड ही हो सकती थी.कम से कम मैं निश्चिन्त था कि अभी कुछ वर्षों तक भगवत का कुछ बिगड़नेवाला नह

अटल अभिशाप स्वयं प्रमथ्यु बन माथे चढ़ाता

(यह एक राजनीतिक कार्यकर्ता की कविता है. जीवन संघर्षों के ताप से निकली, एक प्रतिबद्ध कवि की कविता. मीठी-मीठी बातों और अबूझ बिम्बों के लदान वाली कविताओं के दौर में यह ताप पाठकों को असुविधा में डालेगा ही) अग्निजेता   गिरिजेश तिवारी अल्हड है, अक्खड़ है, मस्त है, फक्कड़ है, ठहाके लगाता है, हँसता-हँसाता है; पाँवों में छाले हैं, हाथों में घट्ठे हैं, यही एक मानुस, सभी उल्लू के पट्ठे हैं. है विनम्र बहुत, मगर छेड़ कर तो देख लो खुद ही ज़रा-सा; दे देता प्रतिभट को मुँहतोड़ टक्कर है. काम जब भी करता है, देख कर इसे क्योंकर आलसी जमातों को जीना अखरता है? रोता है, अकेले में अहकता है, किन्तु सबके सामने यह चहकता है; बहक जाते हैं सभी, पर नहीं यह तो बहकता है. सीखने की ललक से अकुला रहा है, समस्याओं से निरन्तर उलझता है. ज्ञान का आगार है, पर नहीं विज्ञापन किया करता; बाँटता है स्वयं को, पर नहीं यह ज्ञापन दिया करता. तुम मुसीबत में फँसो, तो देख लेना, साथ में यह भी तुम्हारे डटा होगा; गीत वैभव के बजाने जब लगोगे, धीरता से चुप लगा तब हटा होगा. घर में बूढ़ी माँ पड़ी बीमार सोती, खाँस

बोलेरो क्लास - असहज वक्त की जीवंत कहानियाँ

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इस बार से हम समीक्षा का एक नया कालम शुरू कर रहे हैं. कोशिश होगी कि एक सोमवार को असुविधा पर कविताएँ हों तो दूसरे पर समीक्षा, यानि अब योजना इसे कविता और समीक्षा के ब्लॉग में बदलने की है. तो आप मित्रों से गुजारिश भी कि अगर आप किसी किताब की समीक्षा कर रहे हों तो उसे हमें उपलब्ध कराइए, किसी ने आपकी किताब की समीक्षा की हो तो भी बेहिचक भेजिए. प्रिंट और ब्लॉग को मैंने हमेशा दो अलग माध्यम माना है तो प्रकाशित/अप्रकाशित पर बहुत जोर कभी नहीं रहा. मेरी कोशिश किसी शुचिता या विशिष्टता को बनाए रखने या स्थापित करने की जगह एक नए पाठक वर्ग को हिन्दी की नई-पुरानी ज़रूरी किताबों से परिचित कराने की है. इस क्रम में महत्वपूर्ण रचनाकारों के कृतित्व पर आलोचनात्मक आलेखों का भी स्वागत है. इस कड़ी में सबसे पहले जाने-माने युवा कथाकार प्रभात रंजन के प्रतिलिपि बुक्स से प्रकाशित कहानी संकलन की संज्ञा उपाध्याय द्वारा की गयी समीक्षा.   अब यह किताब आप प्रतिलिपि बुक्स की विशेष योजना के तहत उनसे सीधे मंगा कर पचास प्रतिशत की छूट प्राप्त सकते हैं. यह समीक्षा कथन में प्रकाशित हुई थी और अब उनकी स्वीकृति से यहाँ भी

विमल चन्द्र पाण्डेय की लंबी कविता

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एक कहानीकार के रूप में विमल चन्द्र पाण्डेय एक सुपरिचित नाम हैं. कहानियों में अपनी विशिष्ट भाषा , प्रखर राजनीतिक स्वर और अपने परिवेश की जटिलताओं को बखूबी व्यक्त करते हुए अपनी पीढ़ी के स्वप्नों और मोहभंगों को चित्रित करने वाले विमल की कविताएँ पढ़ना मेरे लिए सुखद था. उनकी कविताएँ पढ़ते हुए मुझे उनमें न केवल एक ईमानदार अभिव्यक्ति की तड़प दिखी बल्कि शिल्प और भाषा के स्तर पर एक ऐसी सजगता भी दिखी जो अनावश्यक सरलीकरण के सहारे बड़बोलेपन में तब्दील हो जाने की जगह अपने समय की जटिल विडम्बनाओं को कविता के फार्मेट में दर्ज करती है. उनके यहाँ युवा होना सिर्फ उम्र का मामला नहीं है. "मुझे ठीक उनसठ साल पहले पैदा होना था ताकि मैं अपने पिता का दोस्त होता" जैसी पंक्तियाँ यूं ही नहीं आतीं. कुर्सियों , पलंगों से रहित इस कवि के घर में बस एक कालीन है भदोही से मंगाया हुआ...जहाँ वह आपके साथ बैठना चाहता है , जहाँ तीन मुँहों और विशाल उदर वाले ब्रह्मालोचक के लिए कोई ऊँचा स्थान नहीं...असल में यह लंबी कविता अलग से एक आलेख की मांग करती है. यहाँ इस पर बहुत कुछ लिख देना पाठक से अ