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जून, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

रवि कुमार की कविताएँ

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  रवि कुमार अपने कवि होने के व्यामोह से लगभग मुक्त रचनाकार हैं. जब वह कविता नहीं लिख रहे होते तो कविता पोस्टर बना रहे होते हैं, जब कविता-पोस्टर नहीं बना रहे होते तो स्केचेज़ बना रहे होते, वह नहीं तो किसी जुलूस में शामिल होते हैं और जब यह सब नहीं कर रहे होते तो अपने क्रांतिकारी पिता की विरासत को सहेजने और आगे बढ़ाने के लिए अपने कामरेडों से विचार-विमर्श कर रहे होते हैं, अभिव्यक्ति के नए अंक की तैयारी में होते हैं. जब फेसबुक जैसी जगहों पर लोग सिर्फ अपना लिखा पढाने के लिए दिन-रात लगे होते हैं तो वह अक्सर दूसरों के ब्लाग्स की बेहतरीन सामग्री शेयर करते हुए दीखते हैं. उनकी यह कवितायेँ काफी पहले मिली थीं लेकिन अपने भुलक्कड़पन के चलते आज लगा पा रहा हूँ...और वह याद दिलाने वालों में से तो हैं नहीं.   अहम नाक़ाबिलियतों के बाबजू्द जो अपना ज़मीर नहीं मार सकते वे इस मौजूदा दौर में ज़िन्दा रहने के काबिल नहीं मैं उन्हीं में से एक हूं मेरा वज़ूद मुझसे ख़फ़ा है क्योंकि मैंने रूह से वफ़ा करनी चाही और अपना ज़मीर नहीं मार पाया इतनी अहम नाक़ाबिलियतों के बाबजू्द मैं ज़िन्दा हूं

'अकथ कहानी प्रेम की' के बहाने

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संतो  धोखा कासू कहियो... मार्तंड प्रगल्भ  कबीर वैष्णव थे . आरंभिक आधुनिक काल में विकसित होती देशज आधुनिकता ने जो मूल्य सामने रखा कबीर उसके अग्रदूत थे, इनकी भक्ति काव्योक्त थी. और इनकी वैष्णवता जाति-कुल निरपेक्ष थी. कबीर के समय से विकसित होती देशज आधुनिकता को अवरुद्ध किया औपनिवेशिक शासन ने. इस औपनिवेशिक शासन ने अपना एक ज्ञान-कांड रचा जिसके प्रभुत्व में फिर से जाति व्यवस्था  प्रतिष्ठित हुई. इस ज्ञानकाण्ड ने देशज ज्ञान के विकास को रोक दिया. इसने पूरे भारतीय चिंतन में एक विच्छेद पैदा किया. और इस प्रकार पश्चिमी या यूरोपीय आधुनिकता के बाध्यकारी मूल्यों को हमारे यहाँ प्रतिष्ठित करने की कोशिश की गयी. लेकिन कबीर के समय से विकसित होती देशज आधुनिकता को औपनिवेशिक शासन के खिलाफ लड़े जा रहे राजनीतिक संघर्ष में पुनः स्थापित करने की कोशिश गांधी ने की. गांधी भी वैष्णव थे. जाति-कुल निरपेक्ष कबीर की वैष्णवता को ‘वैष्णव जन ते...’ के रूपक में उन्होंने लोकप्रिय किया. इसकी ग्राह्यता खुद इसकी लोकप्रियता में थी. जिस प्रकार कबीर शाक्त को नकार कर वैष्णव हुए थे, उसी प्रकार जिन क्रान्तिकारियों ने शाक्त

नीलोत्पल की कविताएँ

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२३ जून १९७५ को उज्जैन में जन्में नीलोत्पल को कविता के लिए ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार मिला है और उनका पहला संकलन ' अनाज पकने का समय' वहीं से प्रकाशित हुआ है. लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित नीलोत्पल की कविताएँ निरंजन श्रोत्रिय द्वारा संपादित ' युवा द्वादश' में भी शामिल हैं. वर्ष २००९ का विनय दुबे स्मृति सम्मान भी उन्हें दिया गया था. राजधानियों के शोर-ओ-गुल से दूर रहकर चुपचाप और लगातार लिखने वाले नीलोत्पल की कविताओं की दुनिया उनके आसपास के परिवेश से तो बनती है, लेकिन अपनी अर्थपूर्ण भाषा और सब्लाइम शिल्प के सहारे वह व्यापक  समय और समाज में लगातार हस्तक्षेप करते चलते हैं. उनकी ये कविताएँ उनकी विशिष्ट काव्य क्षमता की गवाही देती हैं.     क्या होगी वक़्त की सही आवाज़ कैसी होंगी सदी की वे पंक्तियां जो बिना शोर और हड़बड़ी के लिखी जाएंगी वह झूठ के बारे में होंगी या किसी बड़े हादसे के क्या उसमें बच्चे होंगे और वे पेड़ जिन्हें अभी तक जलाया नहीं गया औरतें तो अमूमन वही होंगी लेकिन वे पंचायते जिनमें गौत्र, जाति, धर्म की रस्म अदायगी टूटी नहीं वे कित

अरुण प्रकाश की एक कहानी

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हिन्दी के महत्वपूर्ण कहानीकार, आलोचक और पत्रकार अरुणप्रकाश जी नहीं रहे. उन्हें श्रद्धांजलिस्वरूप आज उनकी एक कहानी. उनकी एक और कहानी आप यहाँ पढ़ सकते हैं. नहान  मैं जब उस मकान में नया पड़ोसी बना तो मकान मालिक ने हिदायत दी थी - ''बस तुम नहान से बच कर रहना। उसके मुँह नहीं लगना। कुछ भी बोले तो ज़ुबान मत खोलना। नहान ज़ुबान की तेज़ है। इस मकान में कोई १८ सालों से रहती है। उसे नहाने की बीमारी है। सवेरे, दोपहर, शाम, रात। चार बार नहाती है। बाथरूम एक है। इसलिए बाकी पाँच किरायेदार उससे चिढ़ते हैं। उसे नहान कह कर बुलाते हैं। वैसे वह अच्छी है। बहुत साफ़ सफ़ाई से रहती है। मैंने मकान मालिक की बात गाँठ बाँध ली। मैंने सोचा मुझे नहान से क्या लेना देना! मुझे कितनी देर कमरे पर रहना है? दस बजे ट्रांसपोर्ट कंपनी के दफ्तर जाऊँगा फिर दस बजे रात में उधर ही से खाना खाकर लौटा करूँगा। मेरा परिवार गाँव में रहता है। वहाँ मेरे माता पिता, पत्नी और दो बच्चे हैं। थोड़ी-सी खेती बाड़ी है जिसके लिए हर महीने गाँव का एक चक्कर लगाता हूँ। ट्रान्सपोर्ट कंपनी में कॉमर्शियल क्लर्क की नौकरी है। दिन भर मा

नीतू अरोड़ा की कवितायेँ

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पंजाबी की कवियत्री  नीतू अरोड़ा  की कवितायेँ किसी विमर्श की सीमा में नहीं बंधती। अक्सर आकार में छोटी इन कविताओं में बहुत तीखी व्यंजना होती है। इनमें प्रेम के अनेक रंग हैं, जीवन की विडंबनाओं के चित्र हैं तो व्यवस्था के अन्याय के प्रति आक्रोश भी, और यह सब कविता के फार्मेट के भीतर। न कोई तेज़ शोर, न कला का कोई अतिरिक्त आग्रह, बस एक सबलाइम से स्वर में वह पूरी दृढ़ता से अपनी बात कहती जाती हैं। पंजाबी मूल से इन कविताओं का अनुवाद  जगजीत सिद्धू  ने किया है। भूमिकायें  बड़ी आसान होती है -- वह भूमिकाए, जो होती है -- हु ब हु आप जैसी ... बहुत मुश्किल है निभाने , वह किरदार , जिनको निभाने के लिए , होना पड़ता है , किसी और के जैसा ........ मजदूर  १. सर के ऊपर मिटटी से भरे तसले उठाये , दो मजदूर , एक बूढ़ा, एक जवान ... जवान आगे निकलता , बूढ़े की और देखता , जीत भरी निगाह से ... बूढ़ा जवान की और देखता , तरस भरी निगाह से ..... २ .  रसोई के बाहर, बर्तन रखता मजदूर , तिरछी निगाह से देखता मेरी और , मुझे गुस्सा नहीं आता .. मजदूर की आँखें , गुस्से से लाल हो जाती .

क्षितिज तक फैले मानवीय संसार की कहानियाँ

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(समीक्षा कालम के तहत इस बार कहानीकार प्रियदर्शन के कहानी संकलन 'उसके हिस्से का जादू' पर  डा प्रज्ञा   की समीक्षा )  समय की  राजनीतिक,सामाजिक, आर्थिक उठापटक से गुजरती ,वैश्विक स्तर पर नई चुनौतियों से जूझती,  धार्मिक संकीर्णता से लोहा लेती और बेहतर भविष्य की राह तलाशती आज की  कहानियों के बीच जब प्रियदर्शन के पहले कहानी संग्रह ‘ उसके हिस्से का जादू ’ की कहानियों को पढ़ते हैं तो लगता है कि जैसे इन तमाम संघर्षों से सृजित हुआ मनुष्य लगातार किसी गंभीर खोज में व्यस्त है। समय के तमाम दबावों के बीच गायब होते जा रहे बचपन की पीड़ा, तेजी से बदलते जा रहे नौजवान सपने, आपाधापी से भरी यांत्रिक जिंदगी में कहीं पीछे छूटता जा रहा बुजुर्गों के स्नेह का सम्बल और विडम्बनामयी यथार्थ के साथ प्रियदर्शन की कहानियां बड़ी बेचैनी से उन संबंधों , स्मृतियों को तलाशने का काम करती हैं जो विपरीत परिस्थितियों में जीवन का आधार बन सकें। प्रियदर्शन  संग्रह की ग्यारह कहानियां और एक संस्मरण( जिसे कहानीकार ने वास्तविक चरित्रों और घटनाओं वाली सच्ची कहानी माना है) विभिन्न लघु पत्रिकाओं में 1988 से ल