फाख्ता की उदासी




समीक्षा कालम में इस बार युवा कवि-कहानीकार अमित मनोज के कविता संकलन 'कठिन समय में" पर विपिन चौधरी की समीक्षात्मक टिप्पणी 

                                                                                                                                                                                                              
अमित मनोज़ छायाचित्र एवं रेखांकन में एकजाना पहचाना नाम है। पिछले कई सालों से लगातार वे अपनी लेखनी से चित्र उकेरते रहे हैं। चित्रांकन के निपुणता आर्जित करने के बाद उन्होनें कहानी  और कविता में अपनी रचनात्मकता के रंग बिखरे  है।

 'कठिन समय में' उनका पहला काव्य संग्रह है, जिसमें उनकी व्यापक संवेदनशील रचनात्मकता  देखने को मिलती है। उन्के द्वारा बनाये गए अनेक  रेखाचित्र जिन्हें देख कर हम सब अपनी  कल्पनाओं में रंग भरते थे वे अब इन कविता के शब्दों  में ढल गए थे. पहला संग्रह होने से एक शुरूआती खालिसपन अमित मनोज की इन कविताओं मे नज़र आता है जो किसी   बौद्धिक विचारधारा  से  बहुत परे हैइस संग्रह मे उन्होंने अपना परिचय 'जीवन-राग' के कवि के रूप में दिया है इसीलिये वे जीवन में छुटी हुई उन चीज़ों को बार-बार याद करते है जो कभी जीवन को गति देती थी। उनका कवि मन  उन पलों की ध्वनी को बार बार याद करता है जिसकी गूँज अभी भी उसके कानों में दस्तक दे रही  है। ठीक इटली के कवि 'सिसारे पावेसी' के उस कथन की तरह जिसमें वे कहते हैं कि हम दिनों को नहीं, पलों को याद रखते हैं। ज़ाहिर है की जीवन यात्रा की वे चीजें आज की चीजों की  बनिस्पत ज्यादा सुकून देने वाली रही होगी जिन्हें हम सभी बार-बार पलट कर पुकारते हैं। आज का आधुनिक इंसान जिस तरह पुरानी चीजों  से नाता तोड कर हर नई चीज़ के लिये टूट पडता है और इसे ही आज के आधुनिक समाज का पहला नियम मान  लिया गया है, इस डर से कि कहीं वह समाज के साथ कदम-ताल मिला कर चलने वाली इस दौड मे पिछड  जायेमानव की इसी प्रवृति के खिलाफ अमित मनोज अपनी कविताओं का खाका खीचते है.

जब वे घर के दादा-दादी और बुजुर्ग लोगों को याद करते हुए 'बुजुर्ग' कविता लिखते हैं तो बरबस ही भीष्म सहानी की कहानी 'चीफ की दावत' की घर के कोने मे सिमटी हुई  माँ की याद आती है

'हालांकि बुजुर्ग
लगते रहते हैं हमें उस समय फालतू
जब वे जीते हैं
ठहराव की जिन्दगी'

कवि का दुख यह है कि जि चीज़ों के साथ उसका बचपन गुज़रा है उन चीज़ों को अब बिसरा दिया गया है.उस  'लालटेन' को  जिसकी मद्धिम रोश्नी में उसने कभी -- सीखें थे  अब अँधेरे मे धुल फांक रही हैं  और कभी कवि का दिल उन मासूम हरकतों को दोहराने का करता है जो वह बचपन के नटखटपने में बार-बार किया करता था या फिर वह उस जीवन की ओर पलट कर देखता है जिसे उसे बचपन में अपने घर परिवार के लोगों के साथ मिलकर जीया है। वह याद करता है उस समय को, जब उसकी रोज़मरा मे काम आने वाली वस्तुयें उसे अपने आस पास के परिवेश से  ही उपलब्ध हो जाया करती  थी. ' दूध दही का खाना' वाले प्रदेश से संबंध रखने वाले अमित मनोज, दूध की बात किये बिना कैसे रह सकते है. दूध जो वह पीया करता था उसके घर के आहते खडी गाय-भैसों से मिलता था, अनाज अपने ही खेतों से अर्जित होता था, पर आज के बदले हुए समय के साथ वह दूध पीते हुये सोच रहा है -

'नहीं मालूम  
शहर में बैठा मैं
किसकी भैंस का दूध पी रहा हूँ
कविता के अंत में दूध के बेस्वाद होने पर वह दूधवाले घीसा से सवाल करता है
घीसा तुम्हारी भैंस को क्या हो गया है ?'

कवि का स्पष्ट इशारा बदलती स्थितियों पर है, हरियाणा और पंजाब जैसे प्रदेश जो फसलों की उगाही में देश भर मे सबसे आगे गिने जाते थे उनकी स्तिथी आज पहले की तरह नहीं रह गई है। समूचे उत्तर भारत में मानसून की कमी के कारण स्तिथी बद से बदतर होती जा रही है, बिजली की कमी, खाद में मिलावट, मानसून में देरी की वजह से  फसल उत्पादन में कमी  हो रही है फलस्वरूप देश भर में किसान कर्ज के बोझ तले दब रहे हैं। ११९० में जब से आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ है तब से ही किसानों की आत्महत्या की खबरें प्रकाश में आने लगी हैं। सबसे पहले महाराष्ट्र (विदर्भके किसानों से ये सिलसिला शुरू हुआ था जो  आज तक नहीं थम सका है। वर्तमान समय में कृषि का क्षेत्र ही सबसे अधिक कठिनाई के दौर से गुजर रहा है। जिसका मुख्य कारण हैं अपर्याप्त भूमि सुधार, दोषपूर्ण भूमि प्रबंधन  सिंचाई की नई तकनीकों को  अपनाने के कारण भी फसल उत्पादन में गिरावट  रही है। इसके अलावा खाद्य उत्पादन और उत्पादकता आदि के क्षेत्र में निवेश अभी अपर्याप्त है। जिस तरह बाकि के क्षेत्रों में अवधारणा, डिजाइन, विकास, मूल्यांकनसूचना और संचार प्रौद्योगिकी का उपयोग किया गया है उसे ग्रामीण क्षेत्र खासकर, कृषि के में लागू करने की ओर सरकार और निजी  संस्थाओं का ध्यान अभी तक नहीं गया है। फलस्वरूप किसान का श्रम, किसान की उम्मीद, नाउम्मीदी और आँसू में बदलते दिखाई देते हैं। सरकार की बेढगीं नीतियों के चलते किसान कर्ज में डुब रहे है, खेती योग्य ज़मीन बंजर होती जा रही है। कर्ज माफि को चुनावी ऐजडें में शामिल कर नई सरकार सत्ता में आती है यानि पहले लोगों को यही सरकारें बिगाडती है फिर सब्जबाग देखा कर उनकी शांती  लेती है। ऊपर से ये राजनैतिक लोग हर पाँच साल बाद सफेदपोश बन जाते हैं और फिर जनता की छोटी यादाश्त  के बल पर फलते फूलते है। सब कुछ जानते हुए भी  हमीं लोग पहले इन्हे सत्ता सोपते हैं  फिर बाद में  इन्हें कोसने का काम करते  हैं.तमाम निजी और सरकारी  बैंक लोगों को लोन देने की नई नई योजनायें बना रहा है जिससे   इन्सान  गले तक कर्ज़दार बन रहा  है. यह सब  वैश्वीकरण का ही विस्तार  है.  वैश्वीकरण के इसी कुटिल कर्म को निशाना बनाते हुये अमित मनोज़ कहते है

बजाना सीख लो 
वैश्वीकरण का झुनझुना
खूब खाओ-पीओ
और चुका  सको तो
मर जाओ।

पिछले साल यही हरियाणा प्रदेश  स्वयंभू पंचायतियों की कारस्तानी  के  चलते अखबारी सुर्खियों मे छाया रहा. ये पगडीधारी  लठ्ठ के सहारे प्यार को दुत्कारने की कोशिश  मे लगे हुए  थे. हर दूसरे दिन अखबार में 'प्यार पर पहरा' और 'प्यार की सज़ा मौत" जैसी हेड लाईन पढ कर हमारा लोकतंत्र शर्म से पानी-पानी हुआ जा रहा था।  इन्हीं लोगों की विकृत मानसिकता को उजागर करते हुई अमित मनोज लिखते है 

लडके-लडकी का प्यार
इनकी नज़र में जुर्म है सबसे बडा
जब भी कोई कतरा है यह जुर्म 
ये कांपती हैं क्रोध से थर-थर 
और देती हैं सजा मौत की
प्यार करने वालों को।  

खाप पंचायतें दरअस्ल बुर्जुआ सभ्यता का प्रतीक हैं जो आज भी अपनी मानसिकता को नयी पीढी पर लादने  का काम  कर रही है। ऊंची-ऊंची पगडियां बांधे ये कठमुल्ले समाज के एक तबके को अपनी चौधराहट के चलते  सिर्फ अपने ही हुकुम पर नाचना  चाहते है और जब कोई इनकी नाक के  नीचें ही  अपने जीवन की कमान खुद धाम कर  जीना  चाहता है तो  इन्हें अपनी मूछें फडकनें लगती है. हरियाणा प्रदेश की लोक-संस्कृति में आकंठ ढूबे हुए अमित मनोज को अपने प्रदेश की  यह अमानुष तरीके की व्यवस्था नागवार गुजरती है. अमित की चिंता के केंद्र में वो सभी चीज़ें है जो समय के साथ-साथ धुमिल होती जा रही हैं पेड-पौधे से हरियाली का झड जाना, चिडियों की चहचाहट का कम होना, धीमी रोश्नी देती लालटेन का घर से गायब होना इत्यादि.अमित मनोज़ की कवितायें नासटोलज़िया में रची बसी कविताऐं नहीं है, वे ज़ीवन के रागात्मक सम्बंध से लबरेज़ कविताऐं हैं। जिनमें जीवन के उस उजास की पीडा है जो मानव मन के रेशे-रेशे में रची बसी है, ये कविताऐं बिना किसी लाग-लपेट के जीवन से सीधे-सीधे जुडाव रखने वाली कवितायेँ हैं जो अपने साथ मानवीयता के नर्म पहलू को  ले कर चलती है।

संग्रह के दूसरे खंड' उदासी के बीच' में जो कविताऐं हैं वे हमारे उस खाये-अघाये आधुनिक मध्यमवर्गीय समाज की हालत को बयां करती कविताये हैं जो 'सब कुछ तो है क्या ढूँढती रहती है ये आँखें, के तर्ज़ का पता देती हैं। ये कवितायेँ उस समय मे प्रस्फुटित हुई हैं  जिस समय में एक संवेदनशील इंसान अपने सबसे नज़दीक, यानी एकातं में होता है तब वह अपने आस-पास के हालत पर तफसील से विचार करता है। उस समय वह जीवन के उन खाली कोनों में विचरता है जहाँ पहुँच पाना उस समय असंभव होता है जब हम  ठेठ दुनियादारी में विचरण कर  रहे  होते है, दुनियादारी के रेलमपेल हमारी सोचने समझने की ताकत को निस्तेज कर देती है, और हम सब चीज़ें को लाभ-हानि के तराजू पर रख कर ही देख पाते हैएक सीमा की बाद  इंसान आफिस के एयरकडिशन कमरे, आस-पडोस के कानफोडु शोर, बाज़ार के  अप्रकर्तिक रोश्नियों और आडम्बरी रंगीनियों से दामन छुडा कर सादगी की  सतह पर  आना चाहता है उस जगह, जहाँ सब कुछ सहज और प्रकर्तिक दिखता और महसुस होता है। वह चिडियों को सुनना चाहता है, सुरज के ढलने-उगने को देखना चाहता है, मचलते दरियाओं को छुना चाहता है पर उसे जब यह सब नहीं मेल पता तो वह  निराश हो कर उसे दुनियादारी के उसी पुराने खोल में घुसना पडता है जिसे छोड वह भागा खडा हुआ था। यह शाप हमें मिलना ही थाआखिर इन परिस्तिथों का जिम्मेवार भी तो हम ही तो है।  

'बारिश, लडकी और आँखें' कविता में समाज की बदमाश आँखें जिस तिरछेपन से लडकी पर टिकी हुई है। यह कविता एक भद्दी सच्चाई को परिभाषित करती है.

कई जोडी आंखें देखती हैं
उसे अब भी भीतर तक 
और आहें भरकर तकाशती हैं
दूसरा ऐसा ही कोई दृश्य 

वैश्वीकरण के दौर ने जिस तरह पारिस्थितिकी अस्तुंलन हुआ है उसके चलते सभी जंतुओं का अस्तित्व खतरे में है। बुलबुल, चिडियाँ, फाखता से लगाव बार बार अमित की कविताओं में बार-बार उभर कर  आता  है. उनकी कविताओं मे पक्षी अपने पंख फडफडाते हुई बेचनी से इधर-उधर अपना ठिकाना ढूंढते हैं पर ठूंठ बनी अडियल शाखों पर  हरियाली को गायब पाते  है.  तब  इन चिडियों की बेबसी और पीडा का अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता. इसी पीडा का सबब बन कर उभरती है 'उदासी' कविता की ये पंक्तियाँ।

वह दौडती हुई जाती भी है
और जिस पेड पर बैठती है 
वही अपने पत्ते झाड
खडा हो जाता है गुमसुम

मुठ्ठी में चाँद, पंगडंडियों को रोंदते हुये, चिठियों का स्वाद,  शीर्षक  मे लिखी गयी कवितायेँ बताती है की, गुज़रा हुआ वक्त अभी भी ठहरा हुआ है हमारे भीतरवह वक्त अँधेरे में गायब नहीं हुआ है अभी। तभी वह आज भी हम से लुका-छिपी का खेल खेलता रहता है. जिस तरह अपने बाल- बच्चो के प्रति इंसानी प्रेम की भी अपनी सीमायें है इसी तरह पशु-पशुओं की भी

चिडियाँ चूंकि जानती है
हर वक्त बनीं नहीं रह सकती वह
नए मुलायम पंखों को धूप में बचाने वाली छतरी
इसीलिए छोड देती है उन्हें
सीमाहीन आकाश में 
ऊँचा और ऊँचा उडने के लिये।

ताउम्र हम उन तमाम  चीज़ों को ही याद करते है जो आज की सुविधा संपन्न समय में हमें रास नहीं आती तब प्रश्न  यह उठता है कि,  क्या हम अनगढ ही बने रह कर खुश है या इंसानी फितरत ही मिटटी  की तरह होती है सौधी और चिकनी, जिसे पकने में  काफी देर लगाती है और हमारे समाज को सभ्य हुये अभी ज्यादा वक्त नहीं हुआ हैमानव सभ्यता का विकास कई चरणों में हुआ था  और अभी आधुनिकता का सम्पूर्ण  विकास होने में थोडा वक्त और लगेगा  तब शायद हम इस आधुनिकता को हजम कर पायें अब तो  हमें अपने कच्चेपन में ही आकंठ ढूबे रहना सकुन से भर देता है। पश्चिम समाज की तरह हम अभी  आधुनिकता के आदी नहीं हो पाये है।

जीवन में  कुछ रिक्तिया ऐसी हैं जो कभी भरने का नाम ही नहीं लेती। कई मानवीय कोण है जो विकास के क्रम में मानव के भीतर छूटे रह गये हैं और वे जब खडी होती है तो पूरी बेशर्मी से नग्न अवस्था में हमारे सामने  कर अड जाती है। उसपर कवि हदय की विडंम्बना है कि वह अपने आसपास अपनी पसंद की दुनिया देखना चाहता है। संसार को अपने अगल बगल रचने का पयास करता है उगने और खेलते देखने की है पर वह जब नहीं होता तो कवि पीडा में भर कर लिख बैठता है

एक दिन ऐसे ही बीत जायेगी यह जिंदगी
दुनिया यहाँ से चली जाएगी वहाँ
पीढियाँ आती रहेगी एक-एक कर
यही भोगकर सुख-दुख
जाती रहेंगी जैसे

आज का कठिन समय कदम कदम पर इम्तेहान लेता है, वह हमारे हाथ में आधुनिक औजारों का छुनछुना थमा देता है पर हमारा मन किसी भी हालत मे सुकून नहीं पता. वे लिखते हैं

जब भी याद आती है
चिडियाँ की 
हम खोल लेते हैं
अपने कंप्यूटर  

एक चहकती कूकते पक्षी को जब हम जड और निर्जीव तकनीक के माध्यम से खोजते हैं यानि आज  हमे  कंप्यूटर की स्क्रीन पर ही हर चीज़ मिलती हैहर खोज का नया अवतार आज,  सर्च ईंजन गूगल है. हमारी आने वाली पीढी को हम चिडियाँ घर और वन रिसोट में सैर करवा  कर  वन उपवन की प्राकर्तिक महक से दूर रखने को विविश हैं, ख़तम होने की कागार पर पहुँची चीज़ों को बौनसाई मे तब्दील करने  के लिये प्रोयोगशालाओं मे  वैज्ञानिक सर जोङे  हुए जुटे  है.अमित मनोज ने जिन चीजों से अपने लगाव को  तराशा है वो चीज़े  नष्ट होने की कगार पर हैं, ये चीजें वस्तुत लुप्तप्राय प्रजातियों के श्रेणी में  चुकी है  और इन से  जुडी  संवेदनाएं समय समय पर गहरी टीस बन कर उभरती हैं और आने वाले समय में कई और चीज़े भी इनमे शामिल हो सकती हैं यदि समय रहते हम सतर्क  हुए तोअतः ये  संवेदनाएं भी तत्काल चिंता के विषय हैं , जिन्हें कल  के लिये टाल देना पूरी मानव सभ्यता के लिये घातक हैं . लेकिन कवि कब हारा है,  तमाम परेशानियों के बीच भी एक कवि ही यह लिख सकता है कि

क्योंकि दुनिया में सिर्फ प्रेम  और उम्मीद ही हैं 
जिन्कें सहारे जीवन
अंधेरें में बैठकर भी जीया जा सकता है

अमित मनोज जीवन के कवि है जो हर नाजुक और धडकनें वाली चीज़ को अपने बगल में रखना चाहते है जो चीज़ें उन्होनें चिन्हित की है वे मानवीयता की अज़ीज़  चीज़े हैं और उनकी याद को धार देने वाली  उनकी  कवितायेँ जीवन  की  जीवन्तता को अधिक घना बनाने का काम करती हैं. आशा है  इन्ही सरोकारों को और  अधिक उत्कृष्ट भाषा शैली में परिभाषित करने का काम उनके अगले संग्रह में  होगा. उनके इस कविता संग्रह से रूबरू होकर पाठको के संवेदनाएं  अवश्य झंकृत होगी और वे जीवन को अपने भीतर कोमलता से महसूस कर सकेंगे.        


      विपिन चौधरी हिन्दी की युवा कवियत्री हैं. उनके दो संकलन आ चुके हैं अभी उनकी कुछ कहानियाँ भी प्रकाशित हुई हैं.  समीक्षा के क्षेत्र में भी वह काफी सक्रिय हैं. उनकी कविताएँ आप यहाँ पढ़ सकते हैं. 




                                                                       
                                                                                          
कठिन समय   में   ( कविता संग्रह)
कवि : अमित मनोज 
प्रकाशक- सतलुज प्रकाशन  पंचकूला (हरियाणा)
मूल्य :१२० रूपये  




टिप्पणियाँ

neelotpal ने कहा…
अमित की कविताएं लोक संवेदना की कविताएं हैं.
neelotpal ने कहा…
अमित की कविताएँ लोक संवेदना की कविताएँ हैं.

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