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पंकज मिश्र की दो कवितायें

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पंकज भाई से परिचय पुराना है। गोरखपुर में जब मैं दिशा छात्र संगठन में गया तो वह संगठन छोड़ चुके थे, पर शहर में मेल-मुलाकातें होती रहीं। फिर ग्वालियर में एक दिन। लेकिन ढंग से मुलाक़ात हुई फेसबुक के माध्यम से। वहीँ उनके कवि रूप से भी परिचित हुआ। अभी उन्होंने नील आर्मस्ट्रांग को केंद्र में रखकर लिखी ये दो कवितायें  पढने के लिए  भेजीं  तो   मैंने अधिकारपूर्वक असुविधा के लिए ले लीं. इन्हें पढ़ते हुए आप देखेंगे कि अपनी गहरी राजनीतिक समझदारी के चलते चाँद पर उतरने के पूरे घटनाक्रम को उन्होंने एक ऐसे बिम्ब में बदल दिया है जिसके झरोखे से पूँजी के खेल को देखा जा सकता है. पंकज भाई का असुविधा पर स्वागत और यह उम्मीद की आगे भी वह हमें अपनी कवितायें उपलब्ध  करायेंगे  (एक ) गुरुत्वाकर्षण कम था या धरती से मोह भंग पता नहीं ....... मेरा ही कोई दोस्त था .....नील आर्म स्ट्राँग लंबे लंबे डग भरता निकल गया मैं तकता रह गया उम्मीद के उस टुकड़े को जो कभी चाँद सा चमकता था गहरी उदास रातों में निकलता नैराश्य के अँधेरे गर्त से उजास की तरह और फ़ैल जाता चला गया एक दिन हाँ ,

प्रदीप सैनी की कवितायें

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इधर प्रदीप सैनी ने अपनी कविताओं से पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचा है. प्रदीप जिस सहजता से अपना प्रतिरोधी स्वर दर्ज करते हैं और खतरों से आपको सावधान करते चलते हैं, वह एक कवि के रूप में बड़ी संभावना का पता देता है. उनके पास एक परिपक्व भाषा है और साफ़ नजर. असुविधा पर उनकी कवितायें पहली बार.   ख़तरा - कुछ नोट्स ख़तरा कैसा भी हो इतना नया कभी नहीं होता इतिहास में कि उसका ज़िक्र न मिले पहचान कर पाना लेकिन मुश्किल ही होता है हर बार ख़तरा बहरूपियों कि तरह बदलता है रंगढंग फिर बाज़ार की हज़ार ख़ामियों के बावजूद ये बात तो है ही की यहाँ हर चीज़ कई रंग रूपों में होती है उपलब्ध इस वक़्त जब ज्यादा जानकार होते हुए कम समझदार होती जा रही है दुनिया सबसे जरूरी हो गया है ख़तरा पहचान लेने का हुनर यूँ तो कहीं भी मौजूद हो सकता है वह संभावनाएं कम ही होती हैं वहां उसके होने की जहाँ लगाई जाती हैं अटकलें उस पर नज़र रखने के लिए वहां गौर से देखना

सुवा तुम्हारे मेरे किस्से बहुत सुन चुके संत/मुल्क इलाके की कुछ बातें आज करो प्रिय कंत।

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जनकवि गिर्दा की किताब पर महेश चन्द्र पुनेठा का समीक्षात्मक आलेख  सोये-सोये साकार नहीं होता कोई सपन ,बैठे-बैठे नहीं होता परिवर्तन     एक ग्लानि मन में हमेशा के लिए रह गयी है कि गिर्दा के जीते-जी मैं उनकी कविताओं पर नहीं लिख पाया। एक बार इस संदर्भ में नैनीताल प्रवास के दौरान गिर्दा से बात भी हुई थी। मैंने उनसे आग्रह किया कि क्या मुझे उनकी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताएं मिल पाएंगी? उन्होंने मंद-मंद मुस्कान के साथ घर पर आने का आमंत्रण दिया। पर व्यस्तता के चलते संभव नहीं हो पाया। उसके बाद भी एक-दो बार नैनीताल जाना हुआ लेकिन चला-चली में ही। उनकी कविताओं पर लिखने की मेरी इच्छा अधूरी रह गयी। उनकी कविताएं कहीं संकलित होती तो यह काम शायद पहले ही हो जाता। इधर ’पहाड़’ संस्था ने गिर्दा की समग्र रचनाओं को दो जिल्दों में प्रकाशित कर यह स्तुत्यनीय कार्य किया है। ’जैंता एक दिन तो आलो’ गिरीश तिवाड़ी ’गिर्दा’ की इधर-उधर बिखरी हिंदी-कुमाउँनी कविताओं का संग्रह है। इस संग्रह में उनकी अब तक की उपलब्ध प्रकाशित-अप्रकाशित कविताओं को वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल की सशक्त  भूमिका के साथ संक

चलो साँसें उलझाएँ : कुमार अनुपम की डायरी से

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कुमार अनुपम की ये कवितायें किसी पुरानी डायरी में कुछ और खोजते मिलीं. कवितायें जिन्हें कवि भी भूल गया था. जाहिर है ये कोई महात्वाकांक्षी कवितायें नहीं जिन्हें लिखते हुए आप लिखे जाने के बाद तक की कल्पनाएँ करते हैं. ये बेकली के किन्हीं पलों में दर्ज कुछ चीखें हैं जिनमें स्मृतियों का वह आत्मीय संसार है जो अब अनुपम की एक खासियत बन चुका है, जिनमें अपने वक़्त के आईने के सामने खड़ा हो किया गया कुछ प्रलाप सा प्रतिवाद है जिसके हश्र के बारे में आप मुतमइन होते हैं. मानचित्र में मनुष्य की तलाश ऐसा बावरा कवि ही कर सकता है. यहाँ कुछ सुलझा लेने की दर्पपूर्ण घोषणा की जगह 'साँसे उलझाने' का स्वप्न है. अभी 'भारत भूषण सम्मान' से सम्मानित अपने इस प्रिय कवि को मेरी ओर से यह पोस्ट एक उपहार... अनुनाद  एक   रात   ज्ञात   होता   है   लौटते   हुए   कि   सुरक्षित   है   अभी   एक   शरीर   की   याद   और   भीतर   की   थकान   में   इन्द्रियों   के   अलावा   शरीक़ हैं   कुछ   स्वप्न   भी   जो   पछाड़   खाए   हुए   घोड़ों   की   तरह  ( एक   विदेशी   तस्वीर   की )  हवा   में   अगल