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दुर्गम रास्तों का चितेरा कवि : पवन करण

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(अग्रज कवि पवन करण की स्त्री विषयक कविताओं पर यह आलेख काफी पहले, स्त्री मेरे भीतर के प्रकाशन के थोड़े दिनों बाद ही, लिखा था. इधर जब आलोचनात्मक लेखों को एक जगह करके किताब बनाने का विचार बना तो इसे फिर से ढूँढा. इस बीच उनकी दो और किताबें आ चुकी हैं और उनमें शामिल कुछ कविताओं के मद्देनज़र लेख में कुछ संशोधन भी किये गए हैं. देखिये)   ( एक ) जो अपनी ज़िन्दगी में अपने हाथों एक बार अपना घोसला ज़रूर बनाता है मैं उस पक्षी की तरह हूँ                      (पिता का मकान) पवन करण हमारे समय के बहुप्रकाशित , बहुचर्चित , बहुपुरस्कृत और बहुविवादित कवि है। पिछले कुछ एक वर्षों में साहित्य में सिकुडते जा रहे कविता के स्पेस के बावजूद उन्हें जितने आलोचक -पाठक नसीब हुए हैं वह किसी भी युवा कवि के लिये , आश्वस्ति और इर्ष्या , दोनों का विषय  हो सकते है। वर्तमान साहित्य के कविता विशेषांक से प्रकाश में आये पवन के पहले संकलन ‘ इस तरह मैं’ का व्यापक स्वागत हुआ था लेकिन दूसरे संकलन ‘ स्त्री मेरे भीतर ‘ ने तो जैसे साहित्य के प्याले में तूफान सा ही उठा दिया । स्त्री के भिन्न -भिन्न रूपों क

दीपक मशाल की कवितायें

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इन दिनों इंग्लैण्ड में रह रहे दीपक मशाल पिछले कुछ बरसों में नेट तथा प्रिंट, दोनों ही माध्यमों में अपनी कविताओं के साथ एक पहचान बना चुके हैं. विज्ञान के विद्यार्थी दीपक की कवितायें सबसे पहले अपनी वैचारिक जद्दोजेहद से आकर्षित करती हैं. इधर की कविताएं पढ़ते हुए आप देख सकते हैं कि अपने निरंतर श्रम और सम्बद्धता से उन्होंने इस जटिल जद्दोजेहद को कविता में दर्ज करने की ज़रूरी कला और भाषा को बरतने का हुनर एक हद तक हासिल किया है, और यह प्रक्रिया लगातार ज़ारी है. असुविधा पर मैं इस युवा कवि का स्वागत करता हूँ. सिकंदर के खाली हाथ तमाशबीन बनी ईंटें और चहलकदमी करते विचार धूमकेतु के पदचिन्हों पर चलती  अनावश्यक रूप से अनावृत सोच  और वो भेड़ों-बकरियों के बाड़े से उपजतीं बदलाव की शोशेबाज़ियाँ  विद्रोह की बयार उठती किन्हीं कोनों में और करती प्रेरित सोयी चट्टानों को लोग उम्र के ढलान पर आकर भी डरते ढोने से जिम्मेदारियां  कहीं बूढ़ी होती आज़ादी पर तंज कसते  कहीं गुलामी पर  दिन-बा-दिन कुरूपता की ओर प्रगतिशील  लोकतंत्र, राजतंत्र और कम्युनिज्म के  विद्रूप चेहरों से उकताए चोट खाए बा