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अक्तूबर, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ये पब्लिक है, सब जानती है!

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युवा कवि अमित श्रीवास्तव अपनी धारदार राजनीतिक कविताओं के लिए जाने जाते हैं. उन्हें आप असुविधा पर पहले भी पढ़ चुके हैं. इस पार पढ़िए उनका राजनीतिक व्यंग्य...उतना ही तीखा...उतना ही धारदार  एंट्री पोल "बताया उन्हें कि एक ऐसी पार्टी आने वाली है जो कहती है कि भ्रस्टाचार मिटाएगी, काला धन हटाएगी ऐसे हो सकता है गरीबी भी भगा दे| `वो तो ठीक’ बाई बोली `पर क्या हमारा कारड बनवाएगी... बताओ भला... ये जो कटिया फांस रक्खी है पोल से उसे तो नहीं हटाएगी...कल्लन लड़ेगा इलिक्शन...हमारी बिरादरी का भी है...वो बनवाएगा कारड कहता है...वही पाएगा हमारा वोट...हमारे को क्या कि वो तल्लैया के उस पार जंगल को...कच्ची खेंचता है...|’" अजीब घालमेल है| बाई द पीपुल, फॉर द पीपुल, ऑफ द पीपुल वाली सरकार के साथ तटस्थ ब्यूरोक्रेसी| तटस्थता कैसे उचाटता में बदलती है, उसपर फिर कभी| अभी तो उस जनता के बारे में जिससे, जिसकी और जिसके लिए ये सरकार है| एक महाशय( ये महा `शय’ हैं या लघु ये तो आने वाला चुनाव साबित करेगा लेकिन तब तक...) जो जन सरोकारों से लबरेज, जन आन्दोलनों में लिप्त थे अब अचानक जिससे,

रुपाली सिन्हा की कवितायें

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रूपाली सिन्हा   से मेरा परिचय कालेज के दिनों का है. हमने एक छात्र संगठन में काम किया है , न जाने कितनी बहसें की हैं , लडाइयां लड़ी हैं और इस डेढ़ दशक से भी लम्बे दौर में शहर दर शहर भटकते हुए भी दोस्त रहे हैं. रूपाली की कवितायेँ एकदम शुरूआती दौर से ही सुनी हैं. गोरखपुर स्कूल के अन्य कवि मित्रों की तरह ही उनका जोर लिखने पर कम और छपवाने पर बिलकुल नहीं रहा है , तो कोई आश्चर्य की बात नहीं. मुझे कई वर्षों की लड़ाइयों के बाद अचानक जब कुछ दिनों पहले ये कवितायेँ मिलीं तो सुखद आश्चर्य हुआ रूपाली अपने मूल स्वभाव से एक्टिविस्ट हैं. कालेज के दिनों से लेकर अब तक वह लगातार संगठनों से जुडी रही हैं और संघर्षों की भागीदार रही हैं. विचार उसके लिए किताबों में पढने और लिखने वाली चीज नहीं, बल्कि बतौर भगत सिंह - तौर-ए-ज़िन्दगी हैं, तो ज़ाहिर है कि एक कशमकश, एक द्वंद्व लगातार उन्हें मथता रहता है. एक औरत होने के नाते ये सवाल कई-कई स्तर पर और गहराते जाते हैं. ये कवितायें पढ़ते हुए आप उसी कशमकश से गुजरेंगे. तुमने कहा  तुमने कहा - विश्वास   मैंने सिर्फ तुम पर विश्वास  किया तुमने कहा - वफ़ा

तुषार धवल की ताज़ा कविता

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तुषार धवल हिंदी के उन युवा कवियों में से है जिसने कभी भेड़चाल का हिस्सा बनना स्वीकार नहीं किया. वह चुपचाप अपने  तरीके से शिल्प और कथ्य दोनों की तोड़-फोड़ करता रहता है और हिंदी के सत्ता विमर्श के कानफोडू शोर की ओर पीठ किये लगातार सृजनरत रहता है. विचारधारा को लेकर उसकी अपनी नज़र है, जिससे मेरी असहमति स्पष्ट है. लेकिन मनुष्यता के पक्ष में उसका कलम इस मजबूती से खड़ा होता है कि कई बार उसका यह विचारधारा विरोध मुझे विचार से कम उसके झंडाबरदारों से अधिक लगता है. ब्रांडिंग के इस ज़माने में वह लगातार नए प्रयोग करता है, नए क्षेत्रों में प्रवेश करने की कोशिश करता है और खतरे उठाकर अपने हिस्से का सच कहने की कोशिश करता है. जिन लोगों ने उसकी काला राक्षस और अभी हाल में कविता ' ठाकुर हरिनारायण सिंह' पढ़ी है, वे इसकी ताकीद करेंगे कि वह हमारे समय में लम्बी कविताओं को सबसे बेहतर और मानीखेज तरीके से साधने वाले कवियों में से है. ' तनिमा ' जैसे उसकी निजी कविता है...निजी से सार्वजनीन की लम्बी और महतवपूर्ण यात्रा करने वाली. मारी गयी और जीते-जी मरती हुई बेटियों के नाम लिखी हुई. जि

बुढ़ापा धरती की बर्फ़ ही तो है - वंदना शुक्ला

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पेशे से शिक्षक, प्रशिक्षण से ध्रुपद गायक और मूलतः कहानीकार तथा विचारक   वंदना शुक्ला की कुछ कवितायें यहाँ-वहाँ प्रकाशित हुई हैं और इन कविताओं पर कहानी तथा वैचारिकता का प्रभाव बखूबी लक्षित किया जा सकता है. उनकी कवितायें अपने समय-समाज के स्थापित मूल्य-मान्यताओं पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए अक्सर एक आकुलता को साथ लिए चलती हैं. शिल्प के स्तर पर वंदना अभी बहुत सावधान नहीं लगतीं और अक्सर सबकुछ कह देने की एक बेकली किसी पहाड़ी नदी की तरह सारे बंध तोड़ कर बह जाने की ज़िद दिखाई देती है. असुविधा पर उनकी कविताओं का स्वागत    धरती की बर्फ़ उम्र को आदत है वक़्त के ब्रश से चेहरों पर लकीरे खींचने की और अस्त होते सूरज को इन्हें पढ़ने की ऑंखे गडा यूँ   दिन और रात के इस संधिकाल में  आदमी का आदमी से बुत हो जाना लाजमी है चित्रकार कहते हैं पोट्रेट में झुर्रियाँ बड़ी कलात्मक दिखती हैं मूर्तिकार गढता है नर्म मिट्टी से एक एक सिलवट को, चुनौती की तरह  ठीक उतने जतन से बुनता है जैसे कोई बुढापा कच्ची-सोंधी यादों से अपना बचपन सपाट चेहरों को छेनी हथौड़ों की आदत ज़रा क