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जनवरी, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

दुष्यंत क्यों रक्तबीज हो गए हैं? - बसंत जेटली

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पारम्परिक आख्यानों का कविता में प्रवेश और उनसे नए पर कुछ कहने का प्रयास हिंदी में कोई नई चीज़ नहीं है. मिथक हों या इतिहास, उनके मूल में उस काल की सामाजिक-राजनीतिक अवस्थितियों से निर्मित परिवेश और आदर्श रहते ही हैं. ऐसे में कई बार उनमें भटक जाने, उनकी आभा से दृष्टि के चुंधिया जाने और इस प्रभाव में किसी पुरोगामी कुपथ पर भटक जाने के खतरे भी होते हैं.  बसंत जेटली की यह कविता  अपने कथ्य के लिए एक प्राचीन आख्यान का सहारा लेती है. शकुन्तला-दुष्यंत का आख्यान. लेकिन इस अति-प्रसिद्ध आख्यान की अँधेरी कंदराओं में भटकने की जगह वह इसके द्वारा स्थापित सहजबोध को प्रश्नांकित करने का ज़रूरी काम करती है और इस रूप में हमारे समय पर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करती है. पार्श्व में चलते अभिनव शाकुंतलम की गूँज से निर्मित इसकी भाषा का प्रवाह कविता में एक विशिष्ट प्रवाह देता है. बसंत जी के प्रति आभार सहित यह कविता ..  शकुन्तला के प्रश्न  विश्वामित्र के तपभंग को प्रेषित अप्सरा माता के गर्भ से अनचाहे जन्मी थी मै | इसमे कसूर न तुम्हारा था न मेरा, यह अलग बात है कि आज तक बूझ नहीं पाई मै अनेक ऋषियों का

लाल्टू की कवितायें

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लाल्टू हिन्दी कविता की मुख्यधारा से बाहर रहकर आपरेट करने वाले कवि हैं. 'मुख्यधारा' यानि संस्था, अकादमी, पुरस्कार,यात्रा वाले खेलों की रंगभूमि से अकसर अनुपस्थित. मुख्यधारा यानि दिल्ली-पटना-लखनऊ-भोपाल-इलाहाबाद स्थित मल्लक्षेत्र से अक्सर असम्बद्ध. शायद यही वज़ह है कि समकालीन विचारहीन विमर्शकेन्द्रित शोरगुल के कानफाडू माहौल में भी वह प्रतिरोध की कविता लिखने में मशगूल हैं. एक पुराने साबित कर दिए गए शिल्प में पूरी ताक़त के साथ नयी बात कहने को प्रतिबद्ध. उनकी कविता अक्सर खुरदरी नज़र आती है, भीतर तक चोटिल कर देने वाली. इधर बहुत कोमल, बहुत संभल कर, बहुत बचते-बचाते कविता लिखने की जो 'कला' प्रचलित हुई है, उसके बरक्स लाल्टू और ऐसे कुछ 'पुराने' ढब के कवियों को पढ़ना मुझ जैसे पाठक को 'असुविधा' का सुकून देता है.  लाल्टू जी की तस्वीर उनके फेसबुक पेज से, ब्लॉग की सज्जा के लिहाज़ से फ्लिप की गयी. सो 'सिर्फ तस्वीर में ' जो  दायाँ है उसे बायाँ समझा जाय  दिखना आप कहाँ  ज़्यादा  दिखते हैं ? अगर कोई कमरे के  अन्दर  आपको खाता हुआ देख ले तो ? बाहर खाता हु

पाठ्य पुस्तकें और राष्ट्रीय कविता - कुमार अम्बुज

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कुमार अम्बुज जी का यह लघु आलेख एक बेहद महत्वपूर्ण विषय को उठाता है. एक ख़ास तरह की कविता को "राष्ट्रीय कविता" कहने का चलन रहा है. जैसे अंग्रेजों के ख़िलाफ़ या पाकिस्तान-चीन जैसे "शत्रु" राष्ट्रों के ख़िलाफ़ या फिर राष्ट्र के यशोगान वाली "वीर हिमालय, जान दे देंगे, पग पखारता समुद्र" मार्का कविताओं को. इन कविताओं को खासतौर पर छोटी कक्षाओं में पढ़ाने पर भी खूब ज़ोर रहा है. तो क्या अन्य कवितायें "अराष्ट्रीय" होंगी? आखिर इस राष्ट्रीयता की राजनीति क्या है? इस सवाल पर शायद ही किसी का ध्यान गया हो. अम्बुज जी का यह लेख इस बात की गहरी तफ्तीश करता है. कुमार अम्बुज  (एक) ‘राष्ट्रीय कविता’ के बारे में शिक्षा प्रणाली के समकालीन सनातन स्वरूप और पाठ्य पुस्तकों के जरिए, एक विशिष्ट लेकिन संकीर्ण समझ प्रदान की जाती रही है। इस पूरी समझ में राष्ट्रवाद का उठान और उससे राजनैतिक लाभ लेने की नीयत हमेशा ही शामिल रही है। दरअसल, ‘राष्ट्रीय कविता’ की अनुदार व्याख्या और परिभाषाओं ने आजादी आंदोलन के दौरान रची गई तत्कालीन प्रासंगिक और अंग्रेज शासन के खिलाफ

अस्त्राखान की हिंदी सराय वाया पुरुषोत्तम अग्रवाल

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        सौरभ बाजपेयी  " हिंदी सराय :   अस्त्राखान वाया येरेवान   " नाम अपने आप में ही एक द्वैध छुपाये है। हिंदी सराय एक जाना पहचाना सा नाम लगता है। हिंदी यानि हिंदुस्तानी और सराय   वो जगह जहाँ लोगों के रुकने - ठहरने का इंतजाम हो। हमने अपने घरों में मेहमानों की आमद से ऊबे घर वालों को अक्सर कहते सुना था - घर न हो गया सराय हो गयी , लेकिन ये अस्त्राखान   और येरेवान भला किस बला   का नाम है ? दरअसल , यही वो द्वैध है जो बिना एक भी पन्ना पलटे   यह अहसास दिलाता है कि   जरूर ये किन्ही दो अनजानों का नाता है। कोई ऐसा अंतर्संबंध जो भाषाई परिवेश में एकदम भिन्न होते हुए भी एक ही राह गुजरता है - अस्त्राखान से येरेवान वाया हिंदी सराय।   इस अंतर्संबंध की खोज अपने आप में बहुत दिलचस्प है।   येरेवान , आर्मेनिया की   राजधानी और देश का सबसे   बड़ा शहर। दुनिया के कुछ सबसे पुराने और   चुनिन्दा जिन्दा शहरों में एक , जो एक बार बसने के बाद कभी उ