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फ़रवरी, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

दुःख से कितना भी भरी रहे एक कविता एक समुद्र का विकल्प होती है.- अरविन्द की कवितायें

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  अरविन्द की कवितायें इधर पत्रिकाओं और ब्लाग्स में  लगातार आई हैं. उनके यहाँ कविता के लिए ज़रूरी ताप भी है और वह मिनिमलिज्म भी जो इधर अक्सर या तो कम होता गया है या एक गूढ़ और अपठनीय  शिल्प में रूपांतरित. अरविंद की कविताएँ पढ़ते हुए हमारे आसपास की दुनिया के कुछ बेहद परिचित दृश्य एक मानीखेज बिम्ब की शक्ल में कुछ इस तरह आते हैं कि वे चमत्कृत करने की जगह भीतर के किसी खालीपन को भरते से लगते हैं. ज़ाहिर है कि हम उन्हें बेहद उम्मीद के साथ देख रहे हैं.. . Sabin Corneliu Burga की पेंटिंग यहाँ से साभार  एक सोचता हूँ एक तस्वीर लूँ तुम्हारी जिसमे तुम्हारे बगल में खड़ा मै नहीं रहूँगा बस बगल में खड़ा रहने की मेरी इच्छा रहेगी तस्वीर लेने के ठीक पहले जो गुजर गयी हो एक चिड़िया वह आये उसमे और ठीक बाद गिर रही पत्ती भी. तस्वीर में बालों की एक लट जो चहरे पर नहीं गिरेगी की वजह हवा नहीं रहेगी वह लट गिर जाये की बस एक क्रिया रहेगी. एक मद्धम मुस्कान जो तुम मेरे लिए हंसोगी  वह नहीं रहेगी उपजा था जो गुस्सा तुम्हारा नाक को लाल करते थोड़ी देर पहले थोड़ी देर से आने पर वह

रघुवंश मणि की एक कविता

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रघुवंश मणि हिंदी के लब्ध-प्रतिष्ठ आलोचक हैं. पिछले दिनों उन्होंने समकालीन तीसरी दुनिया के ताज़ा अंक में प्रकाशित यह कविता पढने के लिए भेजी. इस कविता को देश में भेद्य तबकों के साथ लगातार हो रहे अत्याचारों के बीच एक जेनुइन गुस्से की अभिव्यक्ति की तरह पढ़ा जाना चाहिए. हालांकि, मेरे जैसे मृत्युदंड के विरोधी के लिए अंतिम पंक्तियों में मृत्युदंड के आह्वान तनिक असुविधा पैदा करने वाले हैं, फिर भी कविता पंछी के बहाने जिस तरह से हमारे समय में आज़ादी से रहने, बोलने, घूमने, लिखने का अधिकार छीने जाने के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करती है, वह मानीखेज़ है.                हवा के पखेरू                                           मुझे पंछी पसंद हैं हवा में उड़ते हुए पंछी परवाज के लिए पाँव खींचे गरदन आगे बढ़ाए हुए ऊॅंचाइयों को नापते जिनकी आँखों में सूरज की रौशनी खेतों की फसलें और जंगल का गहरा हरापन है मुझे ऐसे पंछी पसंद हैं। मुझे वे सारे रंग पसंद हैं जो उनकी आँखों में हैं उनके सपनों में हैं उनकी आँखों के सपनों में हैं मुझे वे सारे स्वाद पसंद हैं जिनके लिए वे दूर-दूर तक उड़ानें भरते

नेहा नरुका की कवितायें

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नेहा नरुका की कवितायें अभी बिलकुल हाल में सामने आई हैं. इन कविताओं को पढ़ते हुए दो तरह के ख्याल आते हैं- पहला यह कि कहीं ये अतिरिक्त सावधानी से अपनाई हुई विद्रोही मुद्रा तो नहीं है और दूसरा यह कि एक स्त्री के क्रोध को हमेशा उसकी मुद्रा या फिर उसके निजी अनुभवों से जोड़कर ही क्यों देखा जाय? कहानी में अगर कहानीकार अपने परिवेश से पात्र गढ़ने की आज़ादी लेता है तो कविता को हमेशा कवि का आत्मकथ्य क्यों माना जाय. मैं अभी इस सकारात्मक पक्ष के साथ ही होना चाहता हूँ. इन कविताओं में जो क्रोध है, जो विद्रोह है, जो तड़प है और मुक्ति की जो असीम आकांक्षा है वह हिंदी कविता ही नहीं समाज में ज़ारी स्त्री-मुक्ति आन्दोलनों से कहीं गहरे जुड़ती है. साथ ही इन कविताओं में जो एक ख़ास तरह की स्थानीयता भाषा और चरित्रों के आधार पर लक्षित होती है, वह इन्हें आथेंटिक ही नहीं बनाती बल्कि इस ग्लोबल होती दुनिया के बीच मध्यप्रदेश के एक पिछड़े सामंती समाज के लोकेल को बड़ी मजबूती के साथ स्थापित भी करती है. इस रूप में यह विद्रोह हवाई नहीं रह जाता बल्कि विकास की चकाचौंध में छूट गए समाजों की हक़ीक़त के साथ टकराते हुए एक बड़