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नवाबों के शहर में केदार जी और मैं - उमेश चौहान

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दिल्ली से निकलने वाली पत्रिका 'कथा' में उमेश चौहान का यह स्मृति-आरेख प्रकाशित हुआ. वरिष्ठ कवि केदार नाथ सिंह की गहन आत्मीय छवियों से भरा-पूरा इस आलेख में उमेश जी की पुस्तक के विमोचन समारोह की रपट भी बड़े अनूठे ढंग से आई है.  उमेश चौहान लगभग चौबीस घंटे के लखनऊ प्रवास के बाद वापसी के लिए घर से बाहर निकलते ही हमेशा की तरह हमें विदा करने के लिए सोनू गेट की बगल में आ खड़ा हुआ था। लगभग तीन-चार साल का प्यारा सा बच्चा। उसे देखते ही प्यार उमड़ता था। हर बार की तरह उसे सामने पाते ही मेरा हाथ अपने आप जेब में चला गया और मैंने सौ रुपए का एक नोट निकालकर उसके हाथ में थमाना चाहा कि अचानक केदारनाथ सिंह जी ने मेरा हाथ पकड़ लिया और बोले, - “ नहीं, यह मेरी तरफ से होगा। ” उन्होंने अपने कुर्ते की जेब से सौ का नोट निकालकर बड़े वात्सल्य के साथ सोनू को पकड़ाया। सोनू मंद-मंद मुस्कराता हुआ उन्हें देख रहा था। केदार जी की आँखों में आनन्द तैर रहा था उस समय। हम सब केदार जी के इस वात्सल्य-भाव से अभिभूत थे। यह हमारे लिए उनके विशाल कवि-हृदय में छिपे हुए एक और विकार-केन्द्र के एकायक उद्घाटित होन

निरंजन श्रोत्रिय की कवितायें

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निरंजन श्रोत्रिय हिंदी कविता में एक सुपरिचित नाम हैं. निजी जीवन की सहज अनुभूतियों को कविता में गहन आवेग के साथ प्रस्तुति की उनकी खासियत को बहुधा लक्षित किया गया है. गुना जैसे छोटे से शहर में रहते हुए उन्होंने कस्बाई जीवन, वहां की सामाजिक-सांस्कृतिक विसंगतियों तथा विद्रूपताओं और  राष्ट्रीय - अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के साथ उसके गहन अंतर्संबंधो की गहन पड़ताल की है और उसे कविता में संभव भी किया है.  आज उनकी कुछ नई-पुरानी कवितायें                 अपनी एक मूर्ति            बनाता हूँ और ढहाता हूँ             आप कहते हैं कि कविता की है।                                                                                                   रघुवीर सहाय              कठिन समय की कविता    ‘कठिन समय है! कठिन समय!!’    बुदबुदाता कवि    उठ बैठता आधी रात   लेकर कलम-दवात    भक्क से जल उठता लैम्प    रोशनी के वृत्त में    संचारी भाव स्थायी रफप से    बैठने लगते कविता की तली में   तय करता है कवि  ड्राफ्ट कठिन समय का  बुनता है भाषा कठिन समय की  याद करता किसी कठिन समय को  तय क

कृष्णकांत की कवितायें

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कृष्णकांत की कवितायें आप असुविधा पर पहले भी पढ़ चुके हैं. वह आन्दोलानधर्मी कवि हैं. गहरे गुस्से और झुंझलाहट से भरे हुए. कई बार जल्दबाजी में लगते हुए, लेकिन गौर से पढने पर पता चलता है कि अपनी विचार यात्रा को लेकर वह काफी सजग हैं. इसीलिए उनकी कवितायें अपने समय-समाज की एक गहरी पड़ताल करती हैं. पाल नैश की पेंटिंग  नारे  जिनके माथे पर चस्पा थे  देशभक्ति के पोस्टर  देश की सुरक्षा और संस्कृति  बचाने का पीटते रहे ढिंढोरा  वे चकलाघरों के अव्वल दलाल निकले  जमीन लूटी, आसमान लूटा  खेत लूटे, खलिहान लूटा  आंख में धूल झोंकी  सब के स​ब जनसेवक नटवरलाल निकले  जिनके नाम पर बने सत्ता के गलियारे  वे खाइयों में, खेतों में  नदियों में रेतों में  पाथर पहाड़ में  उगाते रहे रोटी  बचाते रहे सांसें  मरते रहे बुझाते रहे  सत्ता लोलुपों की प्यासें  उनके लिए लगाए गए  कोटि कोटि नारे  लाल किले का दिल पिघला  भाषणों में चिल्लाया  बेचारे—बेचारे  गरीबी हटाओ, गरीबी हटाओ दिए गए नारे  बरसाए गए फूल सजाई गईं थालियां  मन मसोस गुदड़ी के लाल  सुनते रहे... स