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जून, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

शिरीष कुमार मौर्य की ताज़ा कविताएं

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शिरीष की ये कवितायें अभी बिलकुल हाल में लिखी गयी हैं. इन पर अलग से किसी विस्तृत टिप्पणी की जगह सिर्फ़ इतना कि इन्हें पढ़ते हुए मुश्किल हालात में एक कवि की प्रतिक्रिया के भीतरी तहों में उठती उथल-पुथल को न सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है बल्कि अपने एकदम करीब घटित होते अनुभव भी किया जा सकता है.  पेंटिंग पाल नैश की  स्‍थायी होती है नदियों की याददाश्‍त कितनी बारिश होगी हर कोई पूछ रहा है कुछ पता नहीं हर कोई बता रहा है बारिश तो बारिश की ही तरह होती है पर लोग लोगों की तरह नहीं रहते रहना रहने की तरह नहीं रहता भीगना भीगने की तरह नहीं होता नदियां मटमैले पानी से भरी बहने की तरह बहती हैं बहने के वर्षों पुराने छूटे रास्‍ते उन्‍हें याद आने की तरह याद आते है  वे लौटने की तरह लौटती हैं पर उनकी आंखें कमज़ोर होती हैं वे दूर से लहरों की सूंड़ उठा कर सूंघती हैं पुराने रास्‍ते और हाथियों की तरह दौड़ पड़ती हैं बारिश नदियों को हाथियों का बिछुड़ा झ़ंड बना देती है जो हर ओर से चिंघाड़ती बेलगाम आ मिलना चाहती हैं किसी पुरानी जगह पर जहां उनके पूर्वजों की अस्थि

जेल जाने के लिए अपराध ज़रूरी नहीं होता न भूख के लिए गरीबी

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इधर लम्बे अरसे से अपनी कोई कविता असुविधा पर नहीं लगाई थी. आज एक ताज़ा कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ जो बया के नए अंक में प्रकाशित हुई है ...           Trine Meyer Vogsland की पेंटिंग  The Queue of Desperation यहाँ से साभार  साभार    मैं फ़िलवक्त  बेचेहरा आवाजों के साथ भटक रहा हूँ... दिल्ली के जंतर-मंतर पर खड़ा हूँ और वहाँ गूँज रही है अमरीका के लिबर्टी चौराहे से टाम मोरेलो के गीतों की आवाज़ मैं उस आवाज़ को सुनता हूँ दुनिया के निन्यानवे फीसद लोगों की तरह और मिस्र के तहरीर चौक पर उदास खड़ी एक लड़की का हाथ थामे ग्रीस की सडकों पर चला जाता हूँ नारा लगाते जहाँ फ्रांस से निकली एक आवाज़ मेरा कंधा पकड़कर झकझोरती है और मैं फलस्तीन की एक ढहती हुई दीवार के मलबे पर बैठकर अनुज लुगुन की कविताएँ पढने लगता हूँ ज़ोर-ज़ोर से. मैं शोपियाँ के सड़कों पर एक ताज़ा लाश के पीछे चलती भीड़ में सबसे पीछे खड़ा हो जाता हूँ और कुडनकुलम की गंध से बौराया हुआ उड़ीसा की बिकी हुई नदियों के बदरंग बालू में लोटने की कोशिश करता हूँ तो एक राइफल कुरेदती है और मैं खिसियाया हुआ मणिपुर के अस्पताल में

विमलेश त्रिपाठी की कविताएं

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आम आदमी की कविता                     [ 1 ] मेरी कही जाने वाली यह धरती   क्या मेरी ही है अन्न जो उगाए मैंने   क्या मेरे ही हैं यह देश जिसमें मेरे पूर्वज रहते आए सदियों क्या यह मेरा ही है यह पृथ्वी यह जल यह आकाश इनके उपर किसका हक है कहां है वह कंधा   जिसके उपर धरती यह टिकी हुई है एक सच को कहावत की तरह कौन कर रहा है इस्तेमाल इस समय कुछ नही मेरे पास सिवाय इसके कि मुझे भाषणों और कहावतों में बदल दिया गया है कुछ लोगों के लिए   विज्ञापन बन गया मैं इस देश और इस समय का आम आदमी अपनी ही धरती पर अपनी पहचान के लिए लड़ता हारता लहुलुहान होता जाता लागातार...         [ 2 ] रूमाल के कोने पर लिखा एक चीकट नाम रह गया हूं एक नाम पट्ट धूल के गुबार में सना एक ईश्वर परित्यक्त किसी निर्जन वन में सूख गया एक कुँआ ईंट कंकड़ों से भरा एक स्त्री के चेहरे पर सूख गए आंसू का नमक एक भूखे किसान के आंख का कींचड़ एक शब्द जिसका अर्थ नहीं समझता यह देश एक अर्थ जिसे गलत समझा गया हमेशा एक कवि जिसका इस समय में कोई नहीं उपयोग एक आम आदमी अपने ही देश के माथे पर