विमलेश त्रिपाठी की कविताएं
आम आदमी की कविता
[ 1 ]
मेरी कही जाने वाली यह धरती
क्या मेरी ही है
अन्न जो उगाए मैंने
क्या मेरे ही हैं
यह देश जिसमें मेरे पूर्वज रहते आए सदियों
क्या यह मेरा ही है
यह पृथ्वी यह जल यह आकाश
इनके उपर किसका हक है
कहां है वह कंधा
जिसके उपर धरती यह टिकी हुई है
एक सच को कहावत की तरह
कौन कर रहा है इस्तेमाल
इस समय कुछ नही मेरे पास
सिवाय इसके कि मुझे भाषणों और
कहावतों में बदल दिया गया है
कुछ लोगों के लिए
विज्ञापन बन गया मैं
इस देश और इस समय का आम आदमी
अपनी ही धरती पर अपनी पहचान के लिए
लड़ता हारता लहुलुहान होता जाता लागातार...
क्या मेरी ही है
अन्न जो उगाए मैंने
क्या मेरे ही हैं
यह देश जिसमें मेरे पूर्वज रहते आए सदियों
क्या यह मेरा ही है
यह पृथ्वी यह जल यह आकाश
इनके उपर किसका हक है
कहां है वह कंधा
जिसके उपर धरती यह टिकी हुई है
एक सच को कहावत की तरह
कौन कर रहा है इस्तेमाल
इस समय कुछ नही मेरे पास
सिवाय इसके कि मुझे भाषणों और
कहावतों में बदल दिया गया है
कुछ लोगों के लिए
विज्ञापन बन गया मैं
इस देश और इस समय का आम आदमी
अपनी ही धरती पर अपनी पहचान के लिए
लड़ता हारता लहुलुहान होता जाता लागातार...
[ 2 ]
रूमाल के कोने पर लिखा एक चीकट नाम रह गया हूं
एक नाम पट्ट धूल के गुबार में सना
एक ईश्वर परित्यक्त किसी निर्जन वन में
सूख गया एक कुँआ ईंट कंकड़ों से भरा
एक स्त्री के चेहरे पर सूख गए आंसू का नमक
एक भूखे किसान के आंख का कींचड़
एक शब्द जिसका अर्थ नहीं समझता यह देश
एक अर्थ जिसे गलत समझा गया हमेशा
एक कवि जिसका इस समय में कोई नहीं उपयोग
एक नाम पट्ट धूल के गुबार में सना
एक ईश्वर परित्यक्त किसी निर्जन वन में
सूख गया एक कुँआ ईंट कंकड़ों से भरा
एक स्त्री के चेहरे पर सूख गए आंसू का नमक
एक भूखे किसान के आंख का कींचड़
एक शब्द जिसका अर्थ नहीं समझता यह देश
एक अर्थ जिसे गलत समझा गया हमेशा
एक कवि जिसका इस समय में कोई नहीं उपयोग
एक आम आदमी अपने ही देश के माथे पर
एक कलंक की तरह
एक सपना जिसे पैंसठ साल की उम्र तक
भूल गए हैं वे लोग
बंद कर कर चुके सात तालों के बीच
जो सुना है
एक कलंक की तरह
एक सपना जिसे पैंसठ साल की उम्र तक
भूल गए हैं वे लोग
बंद कर कर चुके सात तालों के बीच
जो सुना है
दिल्ली नाम के किसी शहर में रहते हैं..।
[ 3 ]
कौन हूं मै घंटो धूप में इंतजार करता
रामलीला मैदान ब्रिग्रेड परेड ग्राउण्ड गांधी मैदान
या खुले सरेह में बांस की बरिअरों से घिरा
अपने तथाकथित अन्नदाताओं के भाषण सुनता
जिसमें बहुत सारे झूठे वादे
और गालियां शामिल
हर फरेब पर तालियां बजाता नारे लगाता
कौन हूं मैं
कौन हूं मैं सड़कों पर मिछिलों में चलता
खाली पैर अपने झाखे और ठेले से दूर
अपने राशन कार्डों लाइसेंस और पहचान पत्रों के
छिन लिए जाने के भय से
अपने कमजोर घरों को बचाने के डर से
सभाओं की भीड़ बढ़ाता मैं कौन हूं
खड़ा होता छाता लगाए वोट डालने की कतार में
यह जानते हुए कि जिसको दे रहा वोट
वही जिम्मेवार सबसे अधिक
भूख और गरीबी और तंगहाली के लिए
अपने परिवार में खुश रहने
और एक सुरक्षित जीवन के लिए
डर का कवच पहने
गूंगी साधे हर अन्याय के सामने
मैं कौन हूं
कौन हूं मैं अपने ही बनाए एक गोलघर में कैद
देश और दुनिया के तमाशों से अलग
खटता रात दिन कारखानों दुकानों खेतों में
अपने कंधे पर धरती के बोझ को थामें
चुपचाप सदियों से
अपनी ही पहचान से बंचित
शोषित दमित और परिमित
कौन हूं मैं
जिसके कंधे पर खड़ी है इस देश की
सबसे शक्तिशाली इमारत
कौन हूं मैं
कि जिसकी मुक्ति का गीत
सदियों हुए बीच में कहीं रूक गया है...।।
रामलीला मैदान ब्रिग्रेड परेड ग्राउण्ड गांधी मैदान
या खुले सरेह में बांस की बरिअरों से घिरा
अपने तथाकथित अन्नदाताओं के भाषण सुनता
जिसमें बहुत सारे झूठे वादे
और गालियां शामिल
हर फरेब पर तालियां बजाता नारे लगाता
कौन हूं मैं
कौन हूं मैं सड़कों पर मिछिलों में चलता
खाली पैर अपने झाखे और ठेले से दूर
अपने राशन कार्डों लाइसेंस और पहचान पत्रों के
छिन लिए जाने के भय से
अपने कमजोर घरों को बचाने के डर से
सभाओं की भीड़ बढ़ाता मैं कौन हूं
खड़ा होता छाता लगाए वोट डालने की कतार में
यह जानते हुए कि जिसको दे रहा वोट
वही जिम्मेवार सबसे अधिक
भूख और गरीबी और तंगहाली के लिए
अपने परिवार में खुश रहने
और एक सुरक्षित जीवन के लिए
डर का कवच पहने
गूंगी साधे हर अन्याय के सामने
मैं कौन हूं
कौन हूं मैं अपने ही बनाए एक गोलघर में कैद
देश और दुनिया के तमाशों से अलग
खटता रात दिन कारखानों दुकानों खेतों में
अपने कंधे पर धरती के बोझ को थामें
चुपचाप सदियों से
अपनी ही पहचान से बंचित
शोषित दमित और परिमित
कौन हूं मैं
जिसके कंधे पर खड़ी है इस देश की
सबसे शक्तिशाली इमारत
कौन हूं मैं
कि जिसकी मुक्ति का गीत
सदियों हुए बीच में कहीं रूक गया है...।।
[ 4 ]
जो चुप है कि जिसके बोलने से पहाड़ पिघलते हैं
और इसलिए जिसके बोलने पर तरह-तरह की पाबंदियां
कि वह बोलेगा जब तो हिलने लगेगी यह धरती
आकाश की छाती कांपेंगी
कि प्रलय आएगा जिसमें ढह जाएंगे आलिशान महल
उसके बोलने से डरती है एक पूरी कौम
और इसलिए उसके दिमाग में संस्थापित किया गया है
चुप्पी का एक साजिशी सॉफ्टवेयर
बांधा गया है उसे सदियों पुरानी गुलाम जंजीरों से
चुप्पी के बदले उसे दी गई है दो जून की रोटी
एक घर जिसमें हवा और रोशनी की पहुंच नहीं
उसकी चुप्पियों की आड़ में चल रहा है खेल
शासन और राजनीति का
पैसे और घोटालों का
खड़ा है पहाड़ अन्याय और जोर जुलूम का
मैं सदियों की उस चुप्पी को तोड़ने के लिए
सदियों से लिख रहा हूं कविताएं
फेंक रहा हूं शब्दों के गोले
बहुत समय हुआ
कि अब मेरे शब्द मुझसे ही पूछ रहे हैं सवाल
और मैं निरूत्तर हूं अपने ही शब्दों के सामने
मैं कवि नहीं
हूं एक आम आदमी दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का रहनावर
शब्दों और चुप्पियों के बीच अपने लिए रोटी के टुकड़े जुगाड़ता
कायरता और साहस के बीच के एक बहुत पतले पुल की यात्रा करता
मैं वही हूं जिसकी आवाज पहुंच नहीं पा रही
जहां पहुंचनी थी बहुत-बहुत जमाने पहले....।।
और इसलिए जिसके बोलने पर तरह-तरह की पाबंदियां
कि वह बोलेगा जब तो हिलने लगेगी यह धरती
आकाश की छाती कांपेंगी
कि प्रलय आएगा जिसमें ढह जाएंगे आलिशान महल
उसके बोलने से डरती है एक पूरी कौम
और इसलिए उसके दिमाग में संस्थापित किया गया है
चुप्पी का एक साजिशी सॉफ्टवेयर
बांधा गया है उसे सदियों पुरानी गुलाम जंजीरों से
चुप्पी के बदले उसे दी गई है दो जून की रोटी
एक घर जिसमें हवा और रोशनी की पहुंच नहीं
उसकी चुप्पियों की आड़ में चल रहा है खेल
शासन और राजनीति का
पैसे और घोटालों का
खड़ा है पहाड़ अन्याय और जोर जुलूम का
मैं सदियों की उस चुप्पी को तोड़ने के लिए
सदियों से लिख रहा हूं कविताएं
फेंक रहा हूं शब्दों के गोले
बहुत समय हुआ
कि अब मेरे शब्द मुझसे ही पूछ रहे हैं सवाल
और मैं निरूत्तर हूं अपने ही शब्दों के सामने
मैं कवि नहीं
हूं एक आम आदमी दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का रहनावर
शब्दों और चुप्पियों के बीच अपने लिए रोटी के टुकड़े जुगाड़ता
कायरता और साहस के बीच के एक बहुत पतले पुल की यात्रा करता
मैं वही हूं जिसकी आवाज पहुंच नहीं पा रही
जहां पहुंचनी थी बहुत-बहुत जमाने पहले....।।
[ 5 ]
अपनी फांफर झुग्गियों से निकल कर
मैं फैल जाना चाहता हूं हर ओर मधुमक्खियों की तरह
बैठना चाहता हूं उन मुलायम चेहरों पर
जो पता नहीं कितनी सदियों से और अधिक मुलायम होते गये हैं
मैं छिपकलियों की तरह अपने बिल से निकल कर गिरना चाहता हूं
उन हजारों थालियों में जो सजी हैं मेरे ही हाथों की कारीगरी से
मैं अपने घोसले से निकल कर गिद्धों की तरह गायब नहीं होना चाहता
झपटना चाहता हूं अपने हक का निवाला तेज चीलों की तरह
अपने अंडो का शिकार करने वाले सांपों के फन
कुचल देना चाहता हूं अपनी लंबी लाठियों के हूरे से
सावधान हो राजधानियां राजमहल के बाशिंदों सावधान
मैं मेघ की तरह घिरकर
गिरना चाहता हूं कठोर और आततायी बज्र की तरह
और अंततः
मैं अब उड़ना चाहता हूं बेखौफ महलों के चौबारों कंगूरों पर सफेद कबूतरों की तरह
अंतहीन.
अंतहीन समयों तक...।।
मैं फैल जाना चाहता हूं हर ओर मधुमक्खियों की तरह
बैठना चाहता हूं उन मुलायम चेहरों पर
जो पता नहीं कितनी सदियों से और अधिक मुलायम होते गये हैं
मैं छिपकलियों की तरह अपने बिल से निकल कर गिरना चाहता हूं
उन हजारों थालियों में जो सजी हैं मेरे ही हाथों की कारीगरी से
मैं अपने घोसले से निकल कर गिद्धों की तरह गायब नहीं होना चाहता
झपटना चाहता हूं अपने हक का निवाला तेज चीलों की तरह
अपने अंडो का शिकार करने वाले सांपों के फन
कुचल देना चाहता हूं अपनी लंबी लाठियों के हूरे से
सावधान हो राजधानियां राजमहल के बाशिंदों सावधान
मैं मेघ की तरह घिरकर
गिरना चाहता हूं कठोर और आततायी बज्र की तरह
और अंततः
मैं अब उड़ना चाहता हूं बेखौफ महलों के चौबारों कंगूरों पर सफेद कबूतरों की तरह
अंतहीन.
अंतहीन समयों तक...।।
****
·
बक्सर, बिहार के एक गांव हरनाथपुर में जन्म ( 7 अप्रैल 1979 मूल तिथि)।
प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही।
·
प्रेसिडेंसी कॉलेज से स्नातकोत्तर, बीएड, कलकत्ता
विश्वविद्यालय में शोधरत।
·
देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, समीक्षा,
लेख आदि का प्रकाशन।
पुस्तकें
·
“हम
बचे रहेंगे” कविता संग्रह, नयी किताब, दिल्ली
·
अधूरे अंत की शुरूआत, कहानी
संग्रह, भारतीय ज्ञानपीठ
·
संपर्क: साहा इंस्टिट्यूट ऑफ न्युक्लियर फिजिक्स,
1/ए.एफ., विधान नगर, कोलकाता-64.
·
Mobile :
09748800649
टिप्पणियाँ
-nityanand