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बसंत जेटली की कहानी

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                                                      बसंत जी की यह कहानी काफी दिनों से मेरे पास थी. इसे पढ़ते हुए मुझे परसाई याद तो आये लेकिन यह भी लगा की उस शैली में लिखना इतना आसान भी नहीं. शायद उस दर्जे की प्रतिबद्धता अर्जित करना भी उतना आसान नहीं. शायद वक़्त भी वैसा नहीं. इस कहानी में जो 'इंकलाबी' चरित्र आये हैं, दरअसल वे और चाहे जो हों कम्युनिस्ट तो नहीं. वे रातोरात दुनिया बदल देने के सपने देखने वाले मध्यवर्गीय चरित्र हैं जो और कुछ भी कर लें दुनिया नहीं बदल सकते...खैर असल मानी तो आपकी प्रतिक्रिया के होंगे .                                                              इन्क़लाब                           वे संख्या में चार थे. उनमे से तीन के कपडे बेहद धूसर और मामूली थे.पैरों में घिसी हुई चप्पलें थीं. एक के सिर पर मओनुमा एक टोपी भी थी. वह हाव – भाव से उनका नेता सा लग रहा था. चौथे के कपडे कुछ सलीकेदार तथा साफ़-सुथरे थे. उसके पैरों में जूते थे और लगता था कि कुछ दिन पहले ही उन पर पौलिश की गयी थी. यों देखने में चारों ही परेशान लग रहे थे. उन सब के चेहरों पर चिंता

संघर्ष, जिजीविषा, अदम्य विश्वास और सृजन के प्रतीक कबीर - रोहिणी अग्रवाल

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डॉ. रोहिणी अग्रवाल       '' मो को कहां ढूंढे रे बंदे ,   मैं तो तेरे पास में।         ना तीरथ में ,   ना मूरत में ,   ना एकांत निवास में।         ना मंदिर में ना मस्जिद में ,   ना काबे कैलास में।           मैं तो तेरे पास में बंदे ,   मैं तो तेरे पास में।         ना मैं जप में ,   ना मैं तप में ,   ना मैं बरत उपास में।         ना मैं किरिया करम में रहता ,   नाहिं जोग संन्यास में।         नहिं प्राण में ,   नहिं पिंड में ,   ना ब्राह्मांड आकाश में।         खोजा होय तुरत मिल जाऊं ,   इक पल की तलास में।         कहत कबीर सुनो भई साधो ,   मैं तो हूं विश्वास में। ''         कबीर के वैचारिक दर्शन पर पर बात करने से पूर्व इस प्रश्न पर विचार कर लेना जरूरी है कि भक्ति काल के अग्रण्य कवि होने के बावजूद कबीर भक्त कवि नहीं ,   संत हैं।   ' जगत मिथ्या ब्रह्मं सत्यं ' -   भक्त संसार को नकार कर संसार की रचना करने वाले अलक्षित ,   अदृष्ट ,   सर्वव्यापी ईश्वर को पा लेना चाहता  है । वह ईश्वर जो शील ,   शक्ति और सौन्दर्य का संगम है और जिसकी अनुकंपा