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अगस्त, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अर्चना भैंसारे- कुछ कवितायें, आत्मकथ्य और एक नोट

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हिंदी के लिए इस वर्ष का साहित्य अकादमी युवा सम्मान प्राप्त करने वाली कवयित्री अर्चना भैंसारे को इस सम्मान के लिए हार्दिक बधाई देते हुए आज असुविधा की यह पोस्ट उन पर केन्द्रित की गयी है.     आभासीय दुनिया में लोकप्रियता की जद्दोजहद के बीच, यह एक सहज काव्‍य यात्रा का ईनाम है युवा कवियित्री अर्चना भैंसारे को साहित्‍यक एकादमी द्वारा मिले युवा पुरस्‍कार को लेकर उठ रहे विवाद के बीच अपनी बात रखी जाए, इसके पूर्व विजेन्द्र जी के संपादन में निकलने वाली पत्रिका कृति ओर के जुलाई-सितंबर के 29वें अंक में पहली बार छपी अर्चना भैंसारे की 11 कविताओं के साथ उसके वक्‍तव्‍य को यहां रखना ज्‍यादा अच्‍छा होगा, ताकि अर्चना को अंजाना कहने वालों और उसकी कविताओं को साधारण कहकर नकारने वालों को अर्चना के जीवन और उसके सामाजिक परिवेश का एक संक्षिप्‍त परिचय मिल जाए। उसके बाद बात रखूंगा, फिलहाल यह बता दूं कि कृति ओर में पहली बार अर्चना की जो 11 कविताएं छपी थी उनमें, आदमी होने से पहले / फिलहाल / उस चादर के तार / सृजन के लिए / वे हत्‍यारे / मुबारक हो मेरे देश / मेरा देश / अनायास / कतार-दर-कतार / अभी से / इन दिन

प्रशांत श्रीवास्तव की नई कविता

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अपने कवि होने को लेकर ज़रुरत से ज़्यादा गंभीरता से लेने वाले कवियों के बीच प्रशांत की 'प्रशांत' उपस्थिति आश्चर्यचकित करने वाली है. अंशु मालवीय, चेतनक्रांति और प्रभात जैसे कवियों की तरह यह कवि भी अपने कविकर्म को गंभीरता से और कवि होने को यथासंभव अगम्भीरता से लेने वालों में है. यह कविता उसने कोई दो महीने पहले भेजी थी और मैं अपनी आदत के अनुसार इसे भूल गया था. आज अचानक कुछ याद करते हुए इसकी याद आई और इसे दुबारा पढ़ा.  यह कविता आज बिना कुछ कहे.... ब्रुक्स की यह पेंटिंग इंटरनेट से  सोचने में होना --------------- सोचने में बहुत छोटा लगता अपना होना खुद की उपस्थिति से भी छोटा जैसे किसी दु:स्वप्न में निगल लिया जाता अपनी बौनी इच्छाओं के अजगर से चमकीले दिनों और उजली रातों में अतीत के झंखाड़ों के बीच कुछ खोजती-सी किसी सदी के चंद दशकों में फ़ैल जाती अपनी रूह समेटने में हाथ आता एक रीता हुआ पात्र अपने सोचने में रह जाता एक भरपूर खालीपन एक रंग होता एक रंग होता जिसमें लगभग छिप जाते सारे रंग वो प्रेम होता या भय का रंग वो इंतजार का रंग होता या आत्मदाह से उपजी राख का उसमें ही ढंका होता क

तुषार धवल की नई लम्बी कविता - एक झुर्री चंद सफेद बाल और आइसोटोप

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आज तुषार चालीस पास से चालीस पार की ओर बढ़ गया....उसे जन्मदिन की बधाई. बस पीछे-पीछे मैं भी आ रहा हूँ उसी रास्ते पर. कुछ दिन पहले उसने जो अपनी लम्बी कविता भेजी थी वह आज उसके जन्मदिन पर आप सबके लिए....इस अवसर पर कोई कमेन्ट लिखने की जगह उसने इस कविता के साथ जो लिख भेजा था, वाही उसके आत्मकथ्य के रूप में ...तुषार की कुछ और लम्बी कवितायें यहाँ  प्यारे साथी अशोक , 22 अगस्त को चालीस का हो जाऊँगा. चालीस पर एक लम्बी कविता भेज रहा हूँ. चालीस से ढलान शुरू होती है और यहीं युवःकाल का चरम भी होता है पूरी तरह परिपक्व. मुझे ऐसा लगता है कि तमाम धर्म दर्शन पंथ आदि ,   मृत्यु से सम्वाद हैं जो नश्वरता की भयावहता को अमरत्व के आश्वासन में बदलने की कोशिश करते हैं. चालीस की पूर्ण परिपक्वता और यौवन की अंतिम चरम बिंदु पर सभी ईश्वर धर्म वगैरह सनातन काल से खड़े हैं और इसके आगे नहीं जाना चाहते क्योंकि यहाँ से क्षय के संकेत शुरू होते हैं. हम भी नहीं जाना चाहते पर हमें जाना ही होता है. यहाँ मैं आम फहम ईश्वरीय अवधारणाओं की बात कर रहा हूँ. भरतीय अध्यात्म में वर्णित जिस निर्गुण ईश्वरको मैं मानता और म