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अक्तूबर, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

रितेश मिश्र की कविताएँ

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रितेश मिश्र  की कविता से मेरा पहला परिचय हुआ था माँ पर लिखी उनकी एक कविता से. तब चौंका था. हिंदी में और दूसरी भाषाओं से भी जो माँ पर जो कविताएँ पढ़ी थीं उनमें एक अजीब सी भावुकता और अपराधबोध अक्सर ही पाया था. रितेश की उस कविता में यह दोनों ही तत्व सिरे से ग़ायब थे, बल्कि वह एक प्रश्नवाचक चिह्न के साथ उपस्थित थे और असुविधा पैदा करने वाली वह कविता मन को आद्र करने की जगह मष्तिष्क को उद्वेलित करती थी. उसके बाद से ही मुझे रितेश की कविताओं की तलाश रहने लगी लेकिन उन्हें अपने कवि होने को लेकर अक्सर लापरवाह और निस्संग ही पाया. कहना न होगा कि आत्ममुग्धता के इस दौर में यह एक दुर्लभ दुर्गुण है. पेशे से पत्रकार रितेश देश विदेश की कविताओं के बड़े कठोर आलोचक और दीवाने पाठक तो हैं ही साथ में एक पत्रकार के रूप में भी खुद को उन्होंने धंधेबाज होने या रुटीन रिपोर्टिंग में उलझाने की जगह लगातार एक जनपक्षधर हस्तक्षेप का प्रयास किया है. उनकी एक कविता हमने दखल और प्रतिलिपि की साझी पहल पर प्रकाशित पुस्तिका 'बेरोज़गारी की कविताएँ' में भी शामिल की है.  आज असुविधा पर उनकी कविताएँ प्रस्तुत करते हुए मुझे

मृत्युंजय की नई कविता - निजलीला

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  मृत्युंजय हमारी पीढ़ी के एक अलहदा प्रकृति के कवि हैं. अलहदा शिल्प में भी और अपनी प्रतिबद्धता में भी. जिन दिनों लोक वगैरह को लेकर अक्सर अर्थहीन बहसें हवा में हैं मृत्युंजय लगभग अकेले लोक लय को साधने की अपनी दुष्कर कोशिश के साथ हमारे बीच उपस्थित हैं , वह भी किसी अलग ब्रांडिंग की आकांक्षा से मुक्त. अक्सर सीधे व्यवस्था से टकराने की मुद्रा में रहे कवि की यह नई कविता पढ़ते हुए आप उसके आत्मसंघर्ष की परतें देख पायेंगे. यहाँ वह आत्मधिक्कार जैसा है जो इस अमानवीय और रोज़ अधिक संहारक होती जा रही व्यवस्था के सीधे प्रतिरोध की जगह उसके हिस्से के रूप में परिणत होते जाने के अभिशाप से उपजती तो हम सब में है लेकिन अक्सर इसे मुद्रा और शब्दों के जादू के ज़रिये छिपा लिया जाता है. निजलीला सीरिया के पेंटर मुनीर अल शारानी की पेंटिंग इंटरनेट से साभार  [क] भोर के भयानक सपने में कैद हैं दुख की गाथाएँ, कारण-निवारण पुतलियों को जकड़े कीचड़ का ब्रह्मपाश सर दर्द से और दिल गर्द से पटा जा रहा है [ख] ज्ञान-गुदरी गोबरैली अमलगम सत्य-सत्ता जोड़ता हूँ और भत्ता जोड़ता हूँ [ग] कारपोरेटी सम

मीरा : एक पुनर्पाठ - हिमांशु पांड्या

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' आली री म्हारे णेणाँ बाण पड़ी' (मीरा की कविता, ’प्रेम‘ के निहितार्थ और हिंदी आलोचना) "कैथोलिक प्रतिष्ठान1 ने (वह) पुस्तक प्रकाशित की जिसे संभवतः मानवीय इतिहास की सबसे रक्तरंजित किताब कहा जा सकता है। ’मेलिस मेलिफिकेरम‘ अथवा ’विचेज़ हेमर‘ ने दुनिया के दिमाग में ’स्वतंत्रचेता महिलाओं के खतरे‘ भर दिए और पादरियों को निर्देश दिए कि उन्हें कैसे ढूँढा जाए, यातनाएँ दी जाएँ और खत्म कर दिया जाए। चर्च द्वारा ’चुड़ैल‘ घोषित की गई इन महिलाओं में अध्येता, पादरी, बंजारन, रहस्यवादी, प्रकृतिप्रेमी, जड़ीबूटियाँ ढूँढने वाली और वे सारी महिलाएँ आती थीं जो ’प्राकृतिक जगत से रहस्यमयी रूप से जुड़ीं‘ हुई थीं। दाइयों को भी उनकी विधर्मी गतिविधियों के लिए मार दिया गया, इसलिए क्योंकि वे अपने चिकित्सकीय ज्ञान का उपयोग प्रसव पीड़ा को कम करने के लिए करती थीं - एक पीड़ा जो भगवान द्वारा हव्वा को दी गई वाजिब सजा थी क्योंकि उसने ज्ञान के फल में भागीदारी कर (आदम के मन में) ’पाप‘ के विचार को जन्म दिया था। तीन सौ साल के विचहंटिंग के इतिहास के चर्च द्वारा हत्या की गई महिलाओं की संख्या पचास लाख से भी ज्याद

मूल निवास का तिलिस्म, स्किट्जोफ्रिनिया और ‘क्रांतिकारी’ कविता : विनोद कुमार शुक्ल पर गिरिराज किराडू

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कवि चित्र यहाँ से साभार  विनोद कुमार शुक्ल की चार कविताओं का पाठ करता हुआ गिरिराज किराडू का यह आलेख हाल ही में उन पर केन्द्रित पाखी के विशेषांक में छपा है. गिरिराज के पास आलोचना का एक अलग व्याकरण भी है और कविता तक पहुँचने की एक जानी पहचानी लेकिन अब विस्मृत की जा रही राह भी. खंडन-मंडन के लिए वह जारगंस या फिर इम्प्रेशंस (प्रभावों) का सहारा लेने की जगह कविता के तंतुओं और उनके बीच की ख़ाली जगहों का सहारा लेता है और इसी लिए यह ज्यादा आश्वस्तिकारक लगता है, सहज भी और आत्मीय भी. लेख काफ़ी लंबा है. इसीलिए एक हिस्सा यहाँ दिया गया है और उत्सुक पाठकों के लिए इसे ई बुक में तब्दील कर दिया गया है, जिसे आप आनलाइन भी पढ़ सकते हैं या डाउनलोड कर इत्मीनान से आफलाइन भी. इसके लिए बस आपको 'यहाँ' क्लिक करना होगा .  मूल निवास का तिलिस्म , स्किट्जोफ्रिनिया [1] और ‘ क्रांतिकारी ’ कविता   गिरिराज किराड़ू यह निबंध विनोद कुमार शुक्ल की चार कविताओं का पठन करता है। वैसे चारों एक ही पठन के भाग हैं लेकिन पहले को स्वतन्त्र भी पढ़ा जा सकता है। - लेखक   १ . पानी गि