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जनवरी, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

और मैं तो कविता भी नहीं लिख सकता तुम जैसी...

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(आज बहुत दिनों बाद अपनी एक कविता असुविधा पर) मेरा नया संकलन पुस्तक मेले में उपलब्ध होगा  एक हारी हुई लड़ाई को उखड़ी साँसों तक लड़ने के बाद लौटता हूँ वहाँ जहाँ सांत्वना सिर्फ़ एक शब्द है लौटना मेरे समय का सबसे अभिशप्त शब्द है और सबसे क़ीमती भी इस बाज़ार में बस वही है बेमोल जो सामान्य है प्रेम की कोई क़ीमत नहीं और बलात्कार ऊँची क़ीमत में बेचा जाता है हत्या की ख़बर अखबार में नहीं शामिल आत्महत्या ब्रेकिंग न्यूज़ है अकेला आदमी अकेला रह जाता है उम्र भर और भीड़ में शामिल होते जाते हैं लोग मैं अकेला नहीं हूँ भीड़ में भी नहीं जाने जाने का उत्साह अभी अभी नाली में खँखार आया हूँ जो जानते हैं मुझे भूल ही जाएँगे एक दिन जो नहीं जानते उन्हें आये तो आये याद की एक चेहरा था रोज़ उसी वक़्त उसी जगह से उन्हीं कपड़ों में गुज़रता नहीं दीखता इन दिनों कौन जाने उनमें से किसी ने कभी सोचा हो मुस्कराने का और अपनी मशरूफियत में भूल गया हो मैं देश के सबसे मशहूर शहर में हूँ सबसे गुमनाम मैं एक बड़े से घर में रहता हूँ जो छोटा है सबसे बड़े घर की रसोई से मैं जो कविता लिखता हूँ वह ख़त्म हो जायेग

श्वेता तिवारी की कविताएँ

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श्वेता की कविताएँ हाल में ही कई पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं. हालाँकि हिन्दी के विमर्श बोझिल काल में उनकी चर्चा अभी बहुत सुनाई नहीं दी है लेकिन उसके वजूहात श्वेता की कविताओं के भीतर और बाहर तलाशे जा सकते हैं. उनकी कविता में शोर की जगह संवेदना है और विमर्श की जगह विचार. कविता के बाहर उनकी सक्रियताएं वैसी नहीं हैं. न आभासी संसार में न ही वास्तविक संसार में. एक छोटे से कस्बे से निकलकर फिलहाल दिल्ली में रह रहीं श्वेता की कवितायेँ पढ़ते हुए आप एक स्त्री की दृष्टि से अपने आस पड़ोस के तमाम रोजमर्रा के चित्र देखते हुए उनके उस अनूठेपन की पहचान कर सकते हैं जो आमतौर पर अनदेखा, अनचीन्हा रह जाता है. भाषा और शिल्प के स्तर पर परिपक्व श्वेता का असुविधा पर स्वागत है और उम्मीद की उनकी कविताएँ हमें आगे भी लगातार पढने को मिलेंगी.   उनका अपना कहीं कुछ नहीं था   तमाम आशाओं और स्वप्नों को  अपनी आँखों में सँजोए हुए  आए वो शहर  जो कृत्रिम रौशनी से लथपथ था  फिर भी  उनकी आँखें चुँधियाती हैं और घना अन्धेरा उनके जीवन में उतर आता है गाढा-काला दुर्गन्ध से भरे नाले के किनारे से बहुत मुश्किल हो

निराला की कविता वनबेला पर सदाशिव श्रोत्रिय

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निराला की कविता वनबेला मनुष्य और प्रकृति के बीच के तादात्म्य और द्वंद्व को चित्रित करती एक अनुपम कविता है जिस पर निराला के आलोचकों ने बहुधा बहुविधि दृष्टिपात किया है. इस लेख में वरिष्ठ कवि और आलोचक डा सदाशिव श्रोत्रिय ने निराला के अपने व्यक्तित्व के द्वंद्वों के साथ इसे जोड़कर कविता को एक नई रौशनी में देखने की महत्त्वपूर्ण कोशिश की है.   कविता का पूरा पाठ यहाँ क्लिक करके पढ़ा जा सकता है.                                                                          निराला की ’’ वन-बेला ’’ एक ऐसी महत्वपूर्ण रचना के रूप में सदैव मेरा ध्यान आकर्षित करती रही है जिसकी प्रासंगिकता हमारे समय में भी समाप्त नहीं हुई है। मैं इसे मानवीय निराशा और अवसाद पर उत्साह और उत्फुल्लता की तथा मानवीय क्षुद्रता पर उसकी महानता की विजय का जयगान करने वाली एक कविता के रूप में देखता हूं। जिस व्यर्थता-बोध और पराजयवादिता का चित्र्ाण इस कविता के पर्सोना के माध्यम से हुआ है उसमें आज पहले की तुलना में   वृद्धि ही हुई है। अफसोस है तो इस बात का कि जिस प्रकृति का सान्निध्य ’’ वन-बेला ’’ के इस पर्सोना को हताशा