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शाहनाज़ इमरानी की कविताएँ

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भोपाल के एक तरक्कीपसंद परिवार से तआल्लुक रखने वालीं शहनाज़ इमरानी की कविताएँ इधर पत्र पत्रिकाओं और सोशल मीडिया पर शाया हुई हैं. इस दौर में जिस तरह देश के तमाम हिस्सों में नई नई स्त्री रचनाकार परिदृश्य में आई हैं, शहनाज़ उसका हिस्सा भी हैं और अपनी संश्लिस्ट कहन और जीवनानुभवों से अर्जित काव्य चेतना के कारण अलग से पहचाने जा सकने वाली आवाज़ भी. असुविधा पर हम उनका एहतराम करते हैं. एक ऊब घर, इत्मीनान, नींद और ख़्वाब सबके हिस्से में नहीं आते जैसे खाने की अच्छी चीज़ें   सब को नसीब नहीं होतीं   जीवन के   अर्थ खोलने   के लिए खुद पर चढ़ाई पर्तों को उतारना होता है पैदा होते ही   एक पर्त चढ़ाई गई थी   जो आसानी से नहीं   उतरती   है   पर्त-दर-पर्त   पर्तों का यह खोल उतरने में बहुत वक़्त लगता है   बहुत कड़वा और कसेला सा एक तजुर्बा यह ऊब बाहर से अंदर नहीं आती   है बल्कि अंदर से बाहर की तरफ़ गयी है कुछ बचा जाने की ख्वाहिश के टुकड़े   कुछ यूँ कि उसे ठीक करने की कोशिश भी   बेमानी लगती है. इसी अफरातफरी में इतना हो   जाता है तयशुदा रास्ते पर चलते रहना   मोहज़ब

कामरेड रामआसरे की मूर्ति

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युवा कथाकार आदित्य प्रकाश की यह कहानी कथन में प्रकाशित हुई थी (मैदान के बाहर नाम से ). भ्रष्टाचार के नाम पर चले अन्ना आन्दोलन का हिस्सा रहे आदित्य ने उसे बहुत करीब से देखा था. बल्कि भीतर से. आज जब वह आन्दोलन टुकड़ों में बिखर गया है और एक सर्वथा नवीन रूप ले चुका है, इस कहानी को पढ़ना उसे समझने में बेहद मददगार होगा. तभी एक धमाका हुआ और एक सत्तर साल का नौजवान कहीं से चिल्लाता हुआ सड़क पर आ गया ..उसके अगल बगल बहुत सारे लोग साथ साथ चल रहे थे. उनमे से कइयो ने तो मुखोटे भी पहन रखे थे.फिर वो एक खाली ऊँची सी जगह पर चढ गया और जोर जोर से चिल्लाने लगा. उसने ऊँची आवाज में कहना शुरू किया कि ये लोग जो तुम्हारे ऊपर बैठे हैं ..सब तुम्हारे नौकर हैं और तुम लोग जो नीचे बैठे हो वो सब के सब राजा हो...ये लोग अब से वहीँ करेंगे जो तुम लोग कहेंगे. सब तरफ हल्ला मच गया और लोगो ने कानाफूसी शुरु कर दी. कोई कहा रहा कि क्या सचमुच में ऐसा ही होगा अब? अगलवाले भाई ने बगल वाले से पुछा कि ..आपको क्या लगता हैं जी ..मानेंगे ये लोग? बगलवाले ने खीसे निपोरते हुए जवाब दिया ..मैं क्या जानू भाई ..आज छुट्टी का दिन था,