कुमार विकल की कविताओं पर शिरीष कुमार मौर्य

कविता की सजग आँखों में अब भी एक शिकायत भरी प्रतीक्षा है
  • शिरीष कुमार मौर्य
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 जब मैंने अपना पहला कविता संकलन तैयार किया तो जिन कवियों को उसे समर्पित किया, विकल उनमें से थे. एक असुविधाजनक कवि जो जितना बाहर जूझता है उतना ही भीतर भी. वामपंथ के तीनों शिविरों में भटककर उदास लेकिन संकल्पबद्ध लौटने वाला कवि, दुःख पर एक कबूतर की तरह झपटने वाला कवि, प्यार करने वाला कवि, प्यार किये जाने वाला कवि. जब हमने पढ़ना शुरू किया तो उनकी किताबें अप्राप्य होना शुरू हो गयीं थीं. कुछ यहाँ वहाँ से मिलीं फिर सम्पूर्ण मिल गया आधार प्रकाशन से छपा सो हममें से अधिकाँश ने उन्हें वहां ही पढ़ा. हिंदी की सांस्थानिक आलोचनाओं के लिए उन्हें ढूंढना तो उनके जीवनकाल में भी मुश्किल रहा होगा. खैर, यहाँ अपने लेख में शिरीष ने उस कठिन बीहड़ में अपने पैर रखे हैं और विकल के कविता संसार का दरवाज़ा आप सबके लिए खोला है.
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इस साल भी हमने आज़ादी की सालगिरह मनाई थी। हर कहीं झंडे फहराए थे। भारतमाता को याद किया था। कितनों ने देखा कि छयासठ साल की इस मां की गोद में न जाने कितने बच्‍चे भूख से बिलबिला रहे हैं...बिलख रहे हैं...उनका सामूहिक संहार किया जा रहा है....बच्चियों के कपड़े फाड़े जा रहे हैं ....उनकी योनि में पत्‍थर से  लेकर लोहे की सलाखें तक डाल दी जा रही हैं....अवसाद, हताशा और उन्‍माद में उसके बच्‍चे आपस में ही झगड़ रहे हैं...सड़कों पर उनका बहता हुआ ख़ून समकालीन राजनीति की गंधाती नालियों में जा रहा है... और मां की बेबसी भी छुपाए नहीं छुप रही। इस सबके बीच पता नहीं क्‍यूं मुझे कुमार विकल याद आ रहे हैं । पहल के फिर शुरू होने के साथ से मुझे कुमार विकल याद आने लगे....ज्ञान जी को सम्‍बोधित उनकी कविता आओ पहल करें याद आने लगी। एक विकल जनवादी प्रतिभा, जो अपने में डूब कर खो गई...चली गई हमेशा-हमेशा के लिए। उनकी कविताएं और उनके संग्रह कभी इतनी तरतीब में नहीं रहे कि शेल्‍फ पर निगाह डालते ही हाथ आ जाएं और न ये कवि ही ऐसा...

कुमार विकल जैसी प्रतिभा को समझना इतना आसान नहीं है। मैंने वाम छात्र राजनीति के दिनों में उन्‍हें पाया। उनकी कविताएं हमारे समकालीन जीवन और ऊर्जा को परिभाषित करती थीं, इसलिए वे बहुत निकट की कविताएं थीं। फिर जब साहित्‍य में प्रवेश करते हुए समूचा कविता संसार खुला तो कुमार विकल के अगल-बगल कई कविजन आ खड़े हुए....उनका चेहरा मानो किसी ग्रुप-फोटोग्राफ का हिस्‍सा हो गया। कुछ था मगर जो उन्‍हें बिना कभी देखे-मिले भी उनके लिए दिल में एक गहरी टीस की तरह बसा रहा....और बसा रहेगा मेरी समूची उम्रों तक। अपनी कविताओं में वे इतने साहसी और घायल दिखते रहे कि मन में एक फिक्र-सी बनी रही उनके लिए। 

कविता की दुनिया वो अकेली दुनिया है, जहां आप बिना किसी से मिले, उससे मिलते चले जाते हैं...इतना कि वो शख्‍़स हमेशा के लिए आपकी भीतरी दुनिया में दाखिल हो जाता है.....और उसका एक अनिवार्य अंग बना रहता है.....मृत्‍यु बाहर होती है, आपके भीतर वो आपकी मृत्‍यु तक का साथी होता है....कुमार विकल मेरे ऐसे ही अग्रज साथी बने, जो बने रहेंगे ....जब मेरी मृत्‍यु आएगी तो कुछेक बेहद अंतरंग जनों के साथ कुमार विकल को भी वहां खड़ा पाएगी। यह सम्‍बन्‍ध जितना अजीब है, उतना ही ज़रूरी भी...मेरे लिए...मेरी लगभग कविताओं के लिए। मैं आज इन पन्‍नों को एक निजी जगह की तरह इस्‍तेमाल करते हुए बहुत भारी मन से ये लेख लिख रहा हूं ...इसे लिखना इन कविताओं के कवि से अचानक मुलाकात के लिए जाने और उसे वापस इस बहुत सारी बची हुई कोलाहल से भरी दुनिया तक लाने की तरह है। यहां हम दो नास्तिक मिल कर फिर वही प्रार्थनाएं करेंगे....जो कभी शायद कुमार विकल ने अकेले की होंगी। ज्ञान जी के अलावा उनके अन्‍य साथियों को मैं उतना नहीं जानता पर उनके साथ अपने होने की शिनाख्‍़त ज़रूर करना चाहता हूं।  
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कुमार विकल ने अमुक कविता से शुरूआत की – ऐसा लिखना, एक ग़लत वाक्‍य लिखना और ग़लत तथ्‍य पेश करना होगा। कुमार विकल ने कई कविताओं से शुरूआत की, कई-कई बार और कई उम्रों में की। कुछ कविताओं में यह अनकहा रहा और पुनरारम्‍भ और आओ पहल करें जैसी कविताओं में कहा भी गया। ये शुरूआतें अपने अधूरेपन में पूरी हुईं। इस अधूरेपन ने कुमार विकल को अपने समय के उन कवियों से अलग खड़ा किया जो पूर्णता की खोज में थे। अंतिम शुरूआत उन्‍होंने आओ पहल करें से की, जिसका अधूरापन पिछली शुरूआतों से कहीं अधिक लम्‍बा खिंच गया – अनन्‍त जितना लम्‍बा और सम्‍पूर्ण। हिन्‍दी में कोई कवि इस तरह की अपूर्णता अथवा अधूरेपन को नहीं पा सका, जो अंतत: एक सम्‍पूर्णता में बदल जाए और उसकी कविता किसी महान आख्‍यान में।

1970 के आसपास से 1997 (मृत्‍युवर्ष) तक की कविता यात्रा में कुमार विकल ने किसी और के विरुद्ध होने से पहले ख़ुद के विरुद्ध एक धारदार (और शानदार) निर्ममता अर्जित की। ख़याल किया जाए कि यह आत्‍म-निमर्मता एक ऐसे वक्‍़त का प्रसंग है, जब हिन्‍दी के अधिकतर बड़े कहाए जाने वाले कवि आत्ममुग्‍ध और आत्‍मग्रस्‍त थे, यहां तक कि बहुत आवाज़ करने वाली क्रांति के कवि भी। किसी पहाड़ी यात्रा में जहां कोई दूसरा कवि प्रकृति में मस्‍त और बिम्‍बग्रस्‍त हो जाएगा, वहां कुमार विकल की आत्‍मा इस तरह बोलती है –

बहुत पीछे छोड़ आया हूं
अपने शरीर से घटिया शराब की दुर्गंध
जिससे उड़ गए हैं मेरे डर
तुच्‍छताएं, कमीनापन   
                       (एक पहाड़ी यात्रा)

इस तुच्‍छता और कमीनेपन को नैतिक जिम्‍मेदारी से कहने का साहस कुमार विकल के साथ सिर्फ़ वीरेन डंगवाल में देखा गया, जिन्‍होंने आत्‍मग्रस्‍त छिछलेपन से जूझने को भी एक काव्‍यमूल्‍य की तरह स्‍थापित किया है। मैं सोचता हूं बड़े कवि, इसी तरह बड़े बनते हैं।

कुमार विकल के व्‍यक्तित्‍व की कमियों के बारे में जितनी चिमगोईयां मैंने हिन्‍दी संसार में देखीं, काश उससे आधी बातें भी उनकी कविता पर हुईं होतीं। कमज़ोरियां हर व्‍यक्ति में होती हैं, हिन्‍दी कविता संसार में भीतर से बहुत छिछले पर ऊपर से सजे-बजे लोग मैं अकसर ही देखता हूं और कुछ के निकट सम्‍पर्क में रहता हूं। कुमार विकल की कमज़ोरी भी क्‍या, शराब...जिससे दूसरों कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था, वे ख़ुद ज़्यादा घुलते जाते थे। इस कमज़ोरी के पीछे भी वो क्रूर वातावरण था, जिसने अपने बीच उस प्रतिभा की उपेक्षा की और लगातार अवसाद में ढकेला। मैं कहूंगा कि हमारे बीच ऐसे लोग बहुत कम है जो अपने को दो फांक काट के कहें कि देखो मैं यह हूं, मुझे आर-पार देखने की ज़रूरत है। इस विडम्‍बना को मैं,  कहने के लिए नहीं, कविताप्रेमी होने के पूरे क्रोध के साथ कह रहा हूं कि हमारी हिन्‍दी हमेशा ऐसे सच्‍चे और ईमानदार खुले घावों के साथ और बेरहमी से पेश आयी है, उन्‍हें कुरदते रहना भी एक घृणित शगल बनता गया है।
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हालांकि यह बताना कवि का काम नहीं है कि कविता क्‍या है या उसके लिए कविता क्‍या है? उनकी कविता ख़ुद बताती है कि वो क्‍या है और क्‍यों है, लेकिन कुमार विकल उन बिरले कवियों में हैं जो कविताओं में उनके होने का अभिप्राय और उद्देश्‍य भी अकसर घोषित करते चलते हैं। ऐसे कवि के साथ आलोचना अपने अनुमान के औज़ार नहीं आज़मा सकती, उसे अधिक संकेन्द्रित और सधा हुआ होना पड़ता है। शायद यह भी एक वजह हो कि ऐसा कवि अकसर अपनी आलोचना से महरूम रह जाता है। बहरहाल, देखें कि अपनी कविता के बारे में कुमार विकल के मूल प्रस्‍ताव क्‍या हैं –

मैंने चाहा था कि मेरी कविताएं
नन्‍हें बच्‍चों की लोरियां बन जाएं
जिन्‍हें युवा मांएं
शैतान बच्‍चों को सुलाने के लिए गुनगुनाएं

मैंने चाहा था कि मेरी कविताएं
लोकगीतों की पंक्तियों में खो जाएं
जिन्‍हें नदियों में मछुआरे
खेतों में किसान
मिलों मजदूर
झूमते गाएं
किंतु मेरी कविताएं की अजीब ही धुन है
खुले विस्‍तार से बंद कमरों की ओर आती हैं
उजली धूप में रहकर
अंधेरे के बिम्‍ब बनाती हैं
                          (यह सब कैसे होता है)

यहां आकांक्षा और उसकी असफलता दोनों हैं। अपनी कविता से बहुत साधारण और मासूम अपेक्षाएं रखने वाला कवि उन्‍हें उलटी दिशा में जाता देखता है। मैं कभी नहीं कहूंगा कि ग़लत दिशा में जाता देखता है। कविता के मूल उद्देश्‍य स्‍पष्‍ट हैं – उसे अपनी सार्थकता में नन्‍हें बच्‍चों, उनकी मांओं, लोकगीतों में बदलते हुए मछुआरों, किसानों, मज़दूरों आदि तक जाना है। लेकिन कुमार विकल जैसे कवि की कविता हो तो उसका बंद कमरों की ओर जाना निरर्थक हो जाना नहीं है। उजली धूप में अंधेरे के बिम्‍ब विडम्‍बना हैं। इस विडम्‍बना को भी कविता ही वहन करेगी। वो आम आदमियों के बीच जा पाए या बंद कमरे में रह जाए, रहेगी आम आदमी की ही कविता। मैं ऐसा कुमार विकल के लिए कह पा रहा हूं, सब कवियों के बारे में नहीं कह सकता। विकल का बंद कमरा आम आदमी की ऐतिहासिक यातनाओं, संकटों, संतापों, विवशताओं और बेचैनियों का कमरा है – ऐसे बंद कमरे उनके अलावा सिर्फ़ मुक्तिबोध के पास थे। ऐसे कमरे भी यदि कोई अपनी कविता में अर्जित कर पाए तो मेरे लेखे वह बड़ा कवि होगा। नाजिम हिकमत और नेरूदा ने जेल के कमरे देखे थे, ये वैसे ही कमरे हैं। उन्‍होंने अपने देश से निर्वासन झेला था, मुक्तिबोध और कुमार विकल ने देश में रहकर उससे कम निर्वासन नहीं झेला। इस सबके बीच विकल की मूल और आदिम इच्‍छा कविता में यही है –

मैं इनकी अंधी दुनिया से निकल कर
लोकगीतों की खुली दुनिया में लौटना चाहता हूं
मेरी मां इंतज़ार में होगी
मैं मां के चेहरे की झुर्रियों पर
एक महाकाव्‍य लिखना चाहता हूं

मेरी मां का चेहरा
गोर्की की मां से मिलता है
और अब भी उसका खुरदुरा हाथ
कुछ इस तरह से हिलता है
कि जैसे दिन भर की मशक्‍कत के बाद
वह, ‘त्रिजन में कोई लोकगीत गा रही हो
मैं चाहता हूं कि मेरी कविताएं
मां के गीतों की पंक्तियों में खो जाएं
बंद कमरों से खुले चौपालों में लौट आएं
                                 ( यह सब कैसे होता है)

कैसी अदम्‍य इच्‍छाएं हैं ये... लोक की कैसी अद्भुत समझ। मुझे कभी विकल को पढ़ते हुए लोर्का की भी अजब-सी याद आती है। लोर्का ने विकल से भी बहुत कम जीवन पाया पर उनकी कविताएं लोकगीत बन पायीं। उन्‍हें पहले लोक का कंठ मिला, आलोचकों की पोथियां बहुत बाद में। यह किसी भी कवि-जीवन चरम लक्ष्‍य हो सकता है। कवि की मां का चेहरा गोर्की की मां के चेहरे से मिलने के कारण एक वैश्विक प्रतीक बन जाता है और आसानी से देखा जा सकता है कि वंचित जनों की पीड़ा की वैश्विकता के आगे पूंजी, बाज़ार और तत्‍वमीमांसी दर्शनों की छद्म वैश्किता कितनी क्षुद्र है। कुमार विकल की कविताएं मुक्ति के दस्‍तावेज़ हैं और एक दुर्लभ कवि की तरह उनकी लड़ाई जितनी बाहर से है, उतनी ही आत्‍म से भी –

मुझे लड़ना है –
अपनी ही कविताओं के बिम्‍बों के ख़िलाफ़ 
जिनके अंधेरे में मुझसे –
ज़िन्‍दगी का उजाला छूट जाता है
                                 (एक छोटी-सी लड़ाई)

यह लड़ाई इतनी आत्‍म के विरुद्ध इतनी सरल नहीं होती, जितनी मालूम होती है। कविताओं के बिम्‍ब कुमार विकल जैसे प्रतिबद्ध कवियों में समाज और राजनीति से आते हैं – उनका अंधेरा समाकलीन समाज और राजनीति का अंधेरा है – यानी अंतत: यह भी बाहर की ही लड़ाई है, इसमें किंचित भी आत्‍मग्रस्‍तता नहीं। कुमार विकल ज़िन्‍दगी के उजाले में जाने के लिए छटपटाते रहे और हार गए, इसका स्‍पष्‍ट आशय है कि वे अपने समय के समाज और राजनीति के अंधेरे में छटपटाकर मरे, उतने सरल अर्थ में हार कर नहीं, जितना मान लिया गया। अब यही संकट हमारे भी आगे है,  यदि हममें उतनी ही प्रतिबद्धता है तो, वरना बेशर्म उजाले भी कम नहीं कविता में।

कुमार विकल ने वापसी की भी विकल कोशिशें कीं –

मैं अपने मुहल्‍ले को वापस जाऊंगा
राजपथ की चकाचौंध से दूर –
ऊंघती बस्‍ती में
पुराने घर के बंद कमरों में
नई ढिबरी जलाऊंगा
पुरानी किताबों को झाड़कर सजाऊंगा
दीवार नया कैलेंडर लगाऊंगा
और धीरे-धीरे
धनिया धोबिन
लच्‍छू लोहार
कानू किरानी
और चतुरी चमार की दुनिया में डूब जाऊंगा
                                            (वापसी)

जाहिर है ज़िंदगी के अंधेरे राजपथ की चकाचौंध से बावस्‍ता हैं। बंद कमरे में नई ढिबरी बहुत दुर्लभ मानवीय और आत्‍मीय बिम्‍ब है। पुराने जनप्रतिबद्ध साहित्‍य से समबद्धता भी दीख रही है। कविता इन आरम्भिक संकल्‍पों में नहीं अंतिम पंक्तियों में खुलती और आग की तरह खिलती है -

और अब –
जब कभी राजपथ पर आऊंगा
अकेला नहीं
पूरे मुहल्‍ले के साथ आऊंगा

कवि का मुहल्‍ला यानी सदियों की सताई हुई जनता, जिनकी आंखों में आज़ादी भी ठीक से चमक नहीं पायी। राजे बदल गए, राज करने के ढंग बदल गए पर राज करना जारी रहा। यह मुहल्‍ला जिस दिन राजपथ पर होगा, उसी दिन कवि की यह वापसी भी पूर्ण होगी। 

कुमार विकल ने पिता की स्‍मृति को समर्पित एक लम्‍बी कविता लिखी है। अंधेरे से भरी इस कविता की बीच की पंक्तियों में पावन किताब का प्रसंग है जहां गूंजते ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी जैसे बहुश्रुत शब्‍द भूकंप की तरह घर दीवारों को कंपाते हैं। इसी भूकंप के बीच कवि का यह आत्‍मस्‍वीकार कौंधता-सा आता है –

ज़िन्‍दगी की सबसे पहली गाली
और सबसे पहली प्रार्थना            
एक साथ सीखी
गाली तुम्‍हारे लिए
प्रार्थना मां के लिए
                       (एक गली का अंधेरा)

पिता के प्रति निजी लगता यह क्षोभ जल्‍द ही घरों में पतियों का बेवजह पौरुष ढो रही स्त्रियों के पक्ष में मुकम्‍मल बयान बन जाता है –

क्‍या आदमी घर के लिए ज़रूरी है
                         (एक गली का अंधेरा)

गालियां कुमार विकल की कविता में फिर लौटती हैं। इस बार उन्‍हें बेबसी और क्रोध की निजता के लिए नहीं बरता गया – अब उसमें विक्षोभ के साथ-साथ विद्रोह की भी पूरी सैद्धान्तिकी उपस्थित है, यहां यह उद्धरण अनिवार्य बन जाता –

मेरे लिए भाषा का इस्‍तेमाल केवल
गालियां ईजाद करने के लिए रह गया है

गालियां –
उन सम्‍भ्रान्‍त लोगों के लिए
जो ठीक दिशा में दौड़ते हुए
अदना आदमी का रास्‍ता रोकने के लिए
गुरुओं महात्‍माओं की अश्‍लील मूर्तियां गढ़ रहे हैं
किंतु भूख के पांव इतने सशक्‍त होते हैं
मूर्तियां तोड़कर निकल जाते हैं
सम्‍भ्रान्‍त लोगों के लिए गालियां छोड़ जाते हैं
जाहिर है गालियां गोलियां नहीं होतीं
फिर भी सम्‍भ्रान्‍त लोग
इन गालियों से इतने पीडि़त हैं
कि अपनी सुरक्षा के लिए गोलियां जुटा रहे हैं
                              ( जन्‍म शताब्दियों वाला वर्ष)

पहले तो भाषा में गालियों के इस्‍तेमाल की विवशता को कवि ने रह गया हैकहकर साफ़ कर दिया है, फिर यहां एक पूरे प्रोसेस की बात हो रही है। इस प्रोसेस का विस्‍तार वर्षों में है – आधुनिक भारत के इतिहास में यह दर्ज़ है,  आर्थिक इतिहास में और राजनीतिक इतिहास में। कविता का अंत मेरे समय में आकर और प्रासंगिक हुआ है। पहले अदना आदमी के पास सिर्फ़ गालियां थीं, गोलियों की तब शुरूआत थी और वे गालियों का ही प्रतिरूपण करती थीं। अब गालियां नहीं है अर्थात् वैचारिकी नहीं है। विचारहीन गोलियां हैं बेलगाम, जो प्रतिशोध हो सकती हैं, लम्‍बी लड़ाई का प्रतिपक्ष नहीं हो सकतीं। कह सकते हैं कि पहले भूख के पांव सही दिशा में थे अब नहीं हैं। ये सारा तमाशा उन सम्‍भ्रान्‍तों का रचा हुआ है, जिनको यह कविता केन्‍द्र में रखती है। जो ज़माने में दैन्‍य और भूख के लिए जिम्‍मेदार हैं, वही भूख के पांवों की ग़लत दिशा के लिए भी जिम्‍मेदार हैं।

कुमार विकल का कविता के बारे में एक बयान बहुत चर्चित रहा है कि कविता आदमी का निजी मामला नहीं है। आधुनिक हिन्‍दी कविता में मूलत: दो ही धाराएं प्रभावी रही हैं – एक जो इस पंक्ति की वैचारिकी में है और दूसरी जो इससे असहमत और उलट है। कुमार विकल ने इस वैचारिकी को जनसाधारण की भाषा में इस ख़ूबी से व्‍यक्‍त किया है कि मार्क्‍सवादी साहित्‍य सिद्धान्‍त की पूरी पोथी न कर पाए। वे कविता एक दूसरे तक पहुंचने का पुल मानते हुए कहते हैं –

अगर पुल पर चलता हुआ आदमी ही सुरक्षित नहीं है
                         तो पुल बनाने की क्‍या ज़रूरत है
वक्‍़त आ गया है
               कि वही आदमी पुल बनाएगा
जो पुल पर चलते आदमी की हिफ़ाज़त कर सकेगा।
                                             (पुल पर आदमी)

अज्ञेय ने पुल पर कविता लिखी तो उसे राम-रावण के मिथकों में उलझा दिया और पुल के निर्माताओं को लेकर किंचित सहानुभूति उसमें डाल दी। मेरे प्रिय वरिष्‍ठ कवि नरेश सक्‍सेना ने अपनी कविता में अतार्किक ढंग से पुल से पार करने से पुल पार होता है नदी नहीं कहकर पुल को ठिकाने लगा दिया। ज़रा सोचिए कि एक पुल केदारनाथ सिंह की कविता में भी टंगा मिलता है और एक पुल बनाने का सवाल विकल की कविता में आता है, कितना फ़र्क़ है दोनों पुलों के होने-न-होने में। इस पुल के बारे में यह सब लिखते हुए कुमार विकल कवि सामाजिक-राजनैतिक भूमिका भी तय कर देते हैं, जबकि केदारनाथ सिंह कुछ तय नहीं करते। मुझे याद आती है मुक्तिबोध की चेतावनी – तय करो किस ओर ओर हो तुम। यह फ़र्क़ चीज़ों रूमानी और वैचारिक नज़रिये से देखने का फ़र्क़ है। कभी हिन्‍दी कविता के विकासकाल में इस रूमान की भी क़द्र थी पर अब वैचारिकी अधिक महत्‍वपूर्ण है। कविता के प्रयोजनों पर बहस का यही एक अंतिम निष्‍कर्ष हो सकता है और होना भी चाहिए। कोई कहेगा कि सब कवियों की पुल को लेकर निजी अभिव्‍यक्ति है और मैं कहूंगा कि जिनके लिए कविता निजी मामला है, वे अपने निज की गलाज़त सम्‍भालें, मुख्‍यधारा की कविता वही है जो आदमी का निजी मामला नहीं है। कुमार विकल की ऊपर आयीं पंक्तियां मुझे चंडीदास की कविता-पंक्ति तक भी ले जाती हैं – सबार ऊपर मानुष सत्‍य तहार ऊपर नाईं।  
***

कुमार विकल एक दूसरे तक पहुंचने के कविता-पुल पर अपने संगी-साथियों और वरिष्‍ठ कवियों से अनौपचारिक वार्तालाप करते हैं। नागार्जुन आपातकाल में कुछ विचलित हो दूसरी छद्म ताक़तों के पक्ष में कुछ समय के लिए चले गए थे। सब जानते हैं कि वह उनकी तात्‍कालिक राजनैतिक भूल थी, जिसका परिष्‍कार उन्‍होंने खिचड़ी विप्‍लव देखा हमने की कविताओं में किया। मुझे ख़ुद बाबा नागार्जुन ने बताया था कि आपातकाल के दौर के आसपास उन्‍होंने कई तेजस्‍वी कवियों को उनकी चुप्‍पी के लिए टोका था और कविता में उन्‍हें सबसे शानदार जवाब कुमार विकल की ओर से मिला - 

लेकिन, नागार्जुन तुम –
मेरी इस चुप्‍पी को ग़लत मत समझना
मैं तो अपने आपको
एक और लड़ाई के लिए
तैयार कर रहा हूं
और अपनी कविता से बाहर
एक सामरिक चुप्‍पी में
कविता से कोई बड़ा हथियार गढ़ रहा हूं
                                (एक सामरिक चुप्‍पी)

यह सामरिक चुप्‍पी आपातकाल यानी अंधेरे समय की कविताओं में टूटती है। कविता में सामरिक शब्‍द का इस तरह उपयोग करने वाले शायद कुमार विकल अकेले हिन्‍दी कवि हैं। यह सैन्‍यविज्ञान की शब्‍दावली का शब्‍द है। यह सेना की रणनीतियों के सन्‍दर्भों में व्‍यवहृत होता है। जाहिर है कि कुमार विकल एक बहुत तीखे पद का व्‍यवहार कर रहे थे, जो जनता के संघर्षों के निरन्‍तर निर्णायक होते जाने को व्‍यक्‍त कर रहा था। सैन्‍यपदावली का इस्‍तेमाल जनता के सेना में बदलते जाने का दृश्‍य बनाता है। अंधेरे समय की कविताओं में यह सामरिक चुप्‍पी सामरिक युक्ति में बदल जाती है –

साथियो
अपनी नौकाओं का तैयार कर लो
और अपनी सुरक्षा के हथियारों को
नौकाओं में ठीक से भर लो
और इस ख़ूंखार नदी में उतरने से पहले
अपनी जेबों में कविताओं की जगह
सामरिक युक्तियां भर लो
                               (ख़ूनी नदी की यात्रा)

लोरियों और लोकगीतों में जा बसने की कामना करने वाला कवि जब हथियारों की बात करने लगता है तो उसके इर्दगिर्द हुए बड़े सामाजिक-राजनीतिक विध्‍वंस का पता चलता है, हालांकि हथियारों का उल्‍लेख यहां अपनी सुरक्षा तक ही सीमित है लेकिन बाद में इस नदी के मुहाने की चट्टान को बारूद से उड़ा देने का संकल्‍प भी कविता में आता है। इस संकट से पहले बातें लोकतांत्रिक दायरे में की जाती थीं लेकिन अचानक लोकतंत्र स्‍थगित कर अधिनायकवादी सत्‍ता केंद्र में आती है जो लगभग सैन्‍य शासन जैसी है तो उससे लड़ने की युक्तियां और उनकी अभिव्‍यक्तियां भी वैसी हो जाती हैं। इसी कविता में एक ऐसा अंतिम मार्मिक बिम्‍ब है, जो तमाम सामरिक संघर्ष के हथियारों को एक मानवीय अर्थ दे जाता है -

ख़ूनी नदी की यात्रा में
कभी किसी ने कोई
घर लौटता जल-पक्षी नहीं देखा
                               (ख़ूनी नदी की यात्रा)

ऐसे ही विरल बिम्‍बों के सहारे अंधेरे समय की व्‍यथा कहने का सिलसिला आगे जारी रहता है –

विपाशा किसी नदी या नारी का नाम नहीं
बल्कि किसी पुराने स्‍मृति-कोष्‍ठ से निकलकर आए
एक सूख गए जल-संसार का धुंधला-सा बिम्‍ब है
जिसे –
मैं सोचता हूं,
शायद ही मेरी कोई कविता सहेज पाए
                                 (विपाशा)

स्‍मृति जब टीसती है, तब अधिक मुखर हो बोलती है। चीज़ों को खो देने की स्‍मृतियों के एक अजीब नास्‍टेल्जिक सुखद प्रभाव से लिथड़े कवि, हिन्‍दी में बड़े कवि कहलाए हैं। स्‍मृतियां अवश्‍य बनी रहीं, टीस खो गई और अगर टीस खो गई तो मेरे लेखे कविता भी खो जाती है। स्‍मृति के लिए महज एक याद करने वाला मन चाहिए लेकिन टीस के लिए एक समूची छटपटाती वैचारिकी चाहिए, जो मस्तिष्‍क को याद के प्रभाव से एक स्‍तर ऊपर लगातार विकल बनाए रखती है। विपाशा का राजनीतिक अभिप्राय दूसरी कविता में जाकर और खुलता है, जब आपातकाल की सम्राज्ञी जीत कर फिर गद्दीनशीं होती हैं –

विपाशा
जिसे सिरफिरे शायर ने
सूख गए जल-संसार का धुंधला-सा बिम्‍ब कहा था
जनमत की नदी से हारकर
मर चुके बूढ़े दरिया की क़ब्र पर
एक कृशकाय अपराधिनी-सी लौट आई है
                              (विपाशा की हार)

हमारे कुछ बड़े कवियों की कविताओं में लोकतंत्र की विडम्‍बना बार-बार सामने आती रही है। हमारे समय में वह विडम्‍बना और भयावह है। स्‍वशासित राज्‍यों में नरमेध यज्ञ कर चुके दानव नायक बनाए जा रहे हैं। साम्‍प्रदायिकता और जाति अब राजनीतिक अनुशासन में शामिल हैं। ऐसे ही संकटों के साथ सहारा बनकर लौटती हैं वे कविताएं, जिन्‍हें कुमार विकल जैसे कवियों ने लिखा होता है। वे हमें हमारी अभिव्‍यक्ति में मदद देती हैं। हमारे पक्षधर होने के विश्‍वास को टिकाए रखती हैं। वैचारिकी तो हम सैद्धान्तिक पुस्‍तकों से भी प्राप्‍त कर सकते हैं, उसे जनता के पक्ष में बरतने का सलीका साहित्‍य से आता है। यहां प्रेमचंद के मशहूर कथन को दोहराने की आश्‍यकता नहीं है।
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कुमार विकल चूंकि साधारण जन हैं इसलिए उनकी कविता भी उसी जनभाषा में बोलती है। आधुनिक हिन्‍दी के अधिकांश कवि साधारण जन हैं (गुज़रे सौ साल में प्रसाद, अज्ञेय और अशोक वाजपेयी को अपवाद मान लीजिए) लेकिन देखने वाली बात है कि उनमें से कितनों की भाषा जनभाषा है। जनभाषा के बिम्‍ब और प्रतीक भी इसी संसार से आते हैं। इसी भाषा में कुमार विकल सामाजिकता के शास्‍त्रीय संसार में पिछड़ों जनों के त्‍योहार माने गए होली के दिन के रंगों में से अपना प्रिय रंग निकाल लाते हैं, जो निस्‍संदेह बच रही मनुष्‍यता का रंग है –

अपने रंगों को सम्‍हाल लो
रंग ख़तरे में हैं
इस समय जब रंगों भरी धूप
हर फूल पर सो रही है
तुम्‍हारे सबसे प्रिय रंग के ख़िलाफ़  साजिश हो रही है

वह रंग –
जो तुम्‍हारी धमनियों में दौड़ता है
जिसकी ताक़त से तुम शेष रंगों की पहचान करते हो
और इस ताक़त की पहचान से एक रंग-संसार को रचते हो
                                                      (रंग ख़तरे में हैं)

कुमार विकल के लिए लाल उम्‍मीद ही नहीं, जीवन भी है। इस रंग की ताक़त वैचारिक ताक़त है, जिससे हम जीवन के दूसरे रंगों की पहचान करते हैं। यह सब ऐसी भाषा में इस ढंग से कहा गया है कि यह बात दूर तक पहुंचती है। मैंने अपने छात्रजीवन में इन पंक्तियों को कई बार पोस्‍टरों और दीवारों पर साकार किया है और राह चलते मजूरों, मैकेनिकों, शिल्पियों, नाईयों आदि को ध्‍यान से इन्‍हें पढ़ते देखा है – धमनी में दौड़ने वाले रंग की पहचान उनके लिए सरल होती थी और वे बोल उठते थे - अरे ये तो लाल सलाम वालों की लाइनें हैं, कुछ भी कहो ये बात तो सही करते हैं। जब ख़ून हमारी बदन को ताक़त देता है तो उसके रंग की बात में दम होगा ही। यह हमारी वामराजनीति की असफलता है कि जनसाधारण की इस समझ को वे आकार नहीं दे पाए। इसी प्रसंग में एक और कविता कुछ पंक्तियां उद्धृत करूंगा -    

दरअसल आप मुझसे नहीं
उस आग से डरते हैं
जो मेरी दियासलाई की डिबिया में बंद है
आप जानते हैं
इस दियासलाई से केवल
एक स्‍वप्‍न-घर की लालटेन नहीं जलती
हज़ारों-लाखों घरों की लालटेनें जलती हैं
करोड़ों बीड़ियां सुलगती हैं

आप एक साथ जलती
लाखों लालटेनों
और करोड़ों सुलगती बीड़ियां से बहुत डरते हैं

याद कीजिए कि वीरेन डंगवाल भी कहते हैं – एक दिन मैं भी प्‍यारा लगने लगूंगा तुम्‍हें / उस लालटेन की तरह / जिसकी रोशनी में / मन लगाकर पढ़ रहा है तुम्‍हारा बेटा। और फिर याद कीजिए विष्‍णु खरे की एक कविता में आने वाला लालटेन जलाने का गूढ़विज्ञान किंवा बौद्धिक ज्ञान। कुमार विकल और वीरेन डंगवाल की लालटेन और विष्‍णु खरे की लालटेन निश्चित ही दो अलग संसारों में बिलकुल अलग लोगों के लिए जलती हैं। यही कारण है कि जनता की तकलीफ़ों को लिखकर भी खरे उस तरह जनता के कवि नहीं हो पाते, जिस तरह हमारे ये दो कवि। जब समान विषयों पर कविताएं लिखी जाती हैं तो उनमें तुलना भी होगी ही और यहां भी सवाल वही मुक्तिबोध वाला ही होगा – तय करो किस ओर हो तुम।  

एक नास्तिक के प्रार्थना-गीत कुमार विकल की अत्‍यन्‍त महत्‍वपूर्ण और लोकप्रिय कविता सिरीज़ है। इस कविता के अत्‍यन्‍त गम्‍भीर प्रसंगों को मैंने अकसर हल्‍के में लिए जाते देखा, जैसे कि यह कोई हास्‍य कविता हो। मेरे भीतर यह अहसास गहराता जाता है कि हिन्‍दी में व्‍यंग्‍य का संस्‍कार शर्मनाक़ ढंग से कम है। हरिशंकर परसाई जैसे लेखक तक ने इस दु:ख को अनेक बार लिखित रूप से व्‍यक्‍त किया है। मैं इस घटना को आश्‍चर्य की तरह देखता हूं कि गांव-जवार के लोगों में व्‍यंग्‍य करने-समझने की क्षमता अच्‍छी-ख़ासी है, उनकी विट कभी तो अतुल्‍य होती है – जबकि कथित पढ़े-लिखे पाठकवर्ग में इसका स्‍तर घटते-घटते लगभग समाप्ति की ओर है और फूहड़ता में बदल गया है। मुझे ऐसी सलाह देने वाले प्रोफेसर मिले हैं कि आप तो कवि हैं, सब टीवी के वाह वाह क्‍या बात है में एप्‍लाई क्‍यों नहीं करते। समझा जा सकता है कि कविता का पराभव इस सुसंस्‍कृत समाज के मनोलोक में किस क़दर हो चुका है। यही रामचन्‍द्र शुक्‍ल के बताए सभ्‍यता के वो आवरण हैं, जिनके चलते उन्‍होंने कहा था कि इनके बढ़ने के साथ-साथ कविकर्म भी कठिन होता जाएगा। कुमार विकल की इस कविता का विषय ऐसा है कि इसमें न जटिलता काम की है न सरलता। प्रार्थना किसी को सम्‍बोधित नहीं हो भी सकती पर नास्तिक लिखकर कर कुमार विकल ने ईश्‍वर के प्रति उसका सम्‍बोधन निश्चित कर दिया। अब इस ईश्‍वर को जानना ही कवि की पाठक को पहली चुनौती है। हालांकि कवि ख़ुद आरम्‍भ में ही एक दृश्‍यान्विति प्रस्‍तुत करता है-

ये सभी प्रार्थनाएं
भक्ति-गीत
विनय पद
और सभी आस्तिक कविताएं
एक निहायत निजी ईश्‍वर को सम्‍बोधित हैं
जिसे मैंने दु:खी दिनों में
रात गए
एक शराबख़ाने की अकेली बेंच पर
पियक्‍कड़ी हालत में
प्रवचन की मुद्रा में पाया
                      (एक नास्तिक के प्रार्थना-गीत)

इस कविता के सम्‍बोधन का पात्र एक निहायत निजी ईश्‍वर जो शराबख़ाने की अकेली बेंच पर पियक्‍कड़ी मुद्रा में पाया जाता है। यह कितना ईश्‍वर है और कितना कवि का आत्‍म, इसे समझ पाना मुश्किल नहीं है। मुझे यह कविता हमेशा एक लम्‍बा स्‍वगत-कथन लगी है, जिसमें कवि अपने भीतर से ख़ुद के साथ प्रभु जी की ओर से भी बोलता और अपने सम्‍पूर्ण प्रभाव में कविता निजता के झीने पर्दे को तार-तार करती हुई एक वेगवती सामाजिक-राजनैतिक धारा में मिल जाती है। इस ट्रीटमेंट को देख पाना हमारे भीतर भी वैसी ही लहरें पैदा करता है। जब कोई कवि पाठकों को शामिल रख के कविता लिखता है तो एक सुन्‍दर वैचारिक दृश्‍य बनता हूं। कवि प्रभु जी से कहता है कि आपतो बहुत देर में आए, अब आपको कौन पिलाए लेकिन चलिए अब रात के अंतिम काम के तौर पर हम एक शराबी कवि को उसके घर पहुंचाएं और उसे अंधेरे से रोशनी तक ले जाएं। दरअसल इस कविता में अवसाद के रूप में हर कहीं शराब मौजूद है। यह शराब बच्‍चन की कविता की शराब की तरह कविता का भरमाने वाला औज़ार नहीं बनती। उसमें कथित सुख नहीं है, वह समता की हास्‍यास्‍पद जन्‍मदात्री नहीं है, वह हिन्‍दू-मुस्लिम में मेल कराने वाली बचकानी कल्‍पना नहीं है। उसमें विकट टूटन और ऐतिहासिक बेबसी है। वह चहुंओर अवसाद से घिरी है। उसमें अछोर अंधेरा है। यहां शराबी कविता का प्रसंग है। यहां कविता की ऐतिहासिक भूमिका भी प्रश्‍नों के घेरे में है, जिसे स्‍पष्‍ट करने के लिए कविता चौथा खंड मुझे उद्धृत करना होगा –

प्रभु जी मुझको नींद नहीं आती है
एक शराबी कविता मुझको
रात-रात भर भटकाती है
सूनी सड़कों, उजड़े हुए शराबख़ानों में
अक्‍सर मुझे धुत्‍त नशे में छोड़ अकेला
जाने कहां चली जाती है

प्रभु जी यह तब भी होता है
जबकि मुझको ठीक पता है
यह तो वर्ग शत्रु कविता है
मुझको भटकाना ही इसका काव्‍य–धर्म है
मुझको आहत करना ही इसका वर्ग-कर्म है
फिर भी इसके एक इशारे पर मैं खिंचता ही जाता हूं
बार-बार आहत होता हूं
बार-बार छला जाता हूं

प्रभु जी मुझको ऐसा बल दो
तोडूं मैं इस मोहक छल को।
                      (एक नास्तिक के प्रार्थना-गीत)

कविता के पहले खंड में बात भक्ति-गीतों और विनय पद से उल्‍लेख से आरम्‍भ हुई थी अब वहां तक पहुंची हैं, जहां कविता शराबी कविता हो जाती है। यह कविता कवि को आहत करती है, रात-रात भर भटकाती है, यह वर्गशत्रु कविता है, इसका छल एक मोहक छल है और प्रभु जी से इस छल को तोड़ सकने के बल की ब्‍याजाकांक्षा करता अनुरोध है। इस शराबी कविता को पूर्ववर्ती हालावादी कविता के बरअक्‍स रखकर देखें तो बात और स्‍पष्‍ट हो जाएगी। यह कविता वर्गबोध की भाषा में अपना वर्गशत्रु निर्धारित करती चलती है। कवि इससे आहत होता है, वर्गशत्रुओं के विरुद्ध लिखकर भला कौन साबुत रह सकता है... यह पूरी कविता कविकर्म के प्रमुख इस पक्ष पर सघन होती जाती है। इसमें एक खंड साम्‍यवादी देशों और दलों के नाम है और संयोग नहीं पूरा खंड छंद में है। साम्‍यवादी विचारधारा के भीतर मत-मतान्‍तरों से मचे कोहराम से सभी परिचित हैं। टुकड़ों में बंटते साम्‍यवादी दलों के विखंडित विद्रूप भी आहत करते हैं – इससे दुनिया में साम्‍यवादी समाज की स्‍थापना का महान स्‍वप्‍न भंग होता है –

जीवन-ज्‍योति जले बुझ जाए
लेकिन कविता काम न आए
अग्निदान दो प्रभु जी
कविता ही सूरज बन जाए
                      (एक नास्तिक के प्रार्थना-गीत)

यह विखंडन साम्राज्‍य और पूंजीवादी ताक़तों का षड़यंत्र है, इसे कुमार विकल तब कविता में पहचान रहे थे जब अकादमिक पोथी लिखने वाले हिन्‍दी के विद्वज्‍जनों को या तो इसका भान तक नहीं था या वे ख़ुद इसके मोहजाल में फंसने जा रहे थे –

अंधेरों की साजिश है यह
रोशनियां आपस में उलझें
प्रभु जी तुम्‍हीं जतन करो कुछ
रोशनियों के झगड़े सुलझे
                      (एक नास्तिक के प्रार्थना-गीत)

जैसा मैंने पहले भी कहा यह निहायत निजी ईश्‍वर कवि का आत्‍म है, इसकी तुलना मुक्तिबोध के आत्‍म से की जा सकती है। कोई बाहरी ईश्‍वर नहीं है, कवि नास्तिक है पर अपने आत्‍म पर उसे भरोसा है। वह उसे दोस्‍ताना अन्‍दाज़ में लगातार प्रभुजी पुकारता है। विचार की रोशनी से रोशन हम ख़ुद ही अपने जतन से रोशनियों के झगड़े सुलझा सकते हैं। पूरी दुनिया तो नहीं लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप में साम्‍यवादी एकता स्‍वप्‍न मैं भी पिछले बीस बरस देखता आ रहा हूं – मेरे स्‍वप्‍न के भंग होने सम्‍भावना अधिकतम है पर स्‍वप्‍न कायम है। मैं अपने स्‍वप्‍न का जिक़्र इसलिए कर पा रहा हूं क्‍योंकि अपनी इस लम्‍बी कविता के अंतिम खंड में कुमार विकल मेरे जैसे नए कवियों से ही मुख़ातिब हैं –

जन-संघर्ष की महानदी को
बीच आग के लाना होगा
नई विधा पाने की ख़ातिर
अपना तन झुलसाना होगा

जंगल की इस आग से लड़ना
अपने युग का महासमर है
कविता में रण-कौशल रचने
का यह बहुत बड़ा अवसर है

कविता का यह कठिन समय है
इसकी अग्नि-परीक्षा होगी
आने वाले कल के कवि की
महासमर में दीक्षा होगी
                      (एक नास्तिक के प्रार्थना-गीत)

अब यह हम पर हैं कि इस महासमर को पहचानने और इसमें दीक्षा पाने लायक वैचारिक तैयारी हमारी है या नहीं। हमारी असफलता एक पूरे युग की असफलता कहलाएगी।
*** 

निरुपमा दत्‍त मैं बहुत उदास हूं कुमार विकल तीसरा और अंतिम संकलन है। उदासी पहले भी रही लेकिन इस संकलन में वह घोषित कर दी गई। लेकिन उदासी के साथ-साथ विकलता के दस्‍तावेज़ भी इन कविताओं में हैं। इसी में विजय कुमार को समर्पित पुनरारम्‍भ, ज्ञानरंजन से संवाद आओ पहल करें और घर-वापसी भी है। ये सब जीवन-संध्‍याओं में धूप की वैचारिक पक्षधरता का दिया साहस है –

कुमार विकल
जिसकी जीवन-संध्‍या में अब भी
धूप पूरे सम्‍मान से रहती है
क्‍योंकि वह अब भी धूप का पक्षधर है
 
प्रिय ज्ञान
आओ हम
अपनी दाढ़ियों के सफ़ेद बालों को भूल जाएं
और एक ऐसी पहल करें
कि जीवन-संध्‍याएं
दोपहर बन जाएं
                      (आओ पहल करें)

मुझे ख़ुशी है कि ज्ञान जी ने अपनी जीवन-संध्‍या में फिर पहल की है, उनके मित्र की यह इच्‍छा अधूरी नहीं रह गई है। यही मेरे लिए कुमार विकल की याद है। मैं इस संग्रह के अंतिम अवसाद, उचाट प्रेम के बारे और इस सबके आत्‍मसंवादी कवि के बारे में नहीं लिख सकता है। कुमार विकल का प्रस्‍थान जीवन से था, कविता से नहीं। वे जीवन से भले नाउम्‍मीद हुए हों, कविता से कभी नाउम्‍मीद नहीं हुए। मुझे उनका यही रूप याद रहता है। ख़ुद को पचपन वर्ष का कवि-वृक्ष कह कर किसी ढहाई गई तबाही में वृक्ष की तरह ही असमय गिर जाने वाला यह कवि मेरी स्‍मृति में आज भी अपनी अग्निधर्मा कविताओं के साथ तन कर खड़ा है और खड़ा रहेगा इसी तरह एक दिन मेरे गिरने तलक।
************
शिरीष कुमार मौर्य

हिंदी की युवा कविता के सबसे मुखर और सक्रिय स्वरों में. हाल में दूसरा कविता संकलन दख़ल प्रकाशन से और तीसरा शिल्पायन से आया है. इधर आलोचना में विशेष सक्रियता. आलोचना की किताब भी आधार प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य. गुलशेर खां शानी पर एक किताब शिल्पायन से.


टिप्पणियाँ

बेनामी ने कहा…
कुमार विकल जैसी प्रतिभा को समझना इतना आसान नहीं है।
एक असुविधाजनक कवि जो जितना बाहर जूझता है उतना ही भीतर भी। बहुत कुछ जाना आपके लेख से kumar विकल की कविताओं और जीवन के बारे में। शाहनाज़ इमरानी
Swapnil Srivastava ने कहा…
कुमार विकल पर आपके लेख पढकर अच्छा लगा ।वे मेरे मनपसंद कवि है।1980 में सम्भावना प्रकाशन से-एक छोटी सी लडाई.कविता संग्रह प्रकाशित हुआ था। उनका यथोचित मूल्यांकन अपेक्षित है।आपने शुरूवात का दी है। कुमार से उसी दौर में दो तीन मूल्यवान मुलाकाते है। कुमार के साथ पाश को पढना नया अनुभव है ।
स्वप्निल श्रीवास्तव
अजेय ने कहा…
दाहिना मार्जिन ऑवरलेप हो रहा है . पढ़ा नहीं जा रहा
अजेय ने कहा…
कुमार विकल उन बिरले कवियों में हैं जो कविताओं में उनके होने का अभिप्राय और उद्देश्‍य भी अकसर घोषित करते चलते हैं। ऐसे कवि के साथ आलोचना अपने अनुमान के औज़ार नहीं आज़मा सकती, उसे अधिक संकेन्द्रित और सधा हुआ होना पड़ता है। शायद यह भी एक वजह हो कि ऐसा कवि अकसर अपनी आलोचना से महरूम रह जाता है।.............बहुत सही ।
शिरीष जी के इस लेख ने कुमार विकल जैसे कवि की कविताओं के जिस संसार की यात्रा करवाई उससे कविमन की संवेदनाओं का समकालीन राजनीति सामाजिक चिंताओं से विकल हो जाना पाया ... उन्होंने अपनी कलम से समाज के प्रति लेखक की जिम्मेदारियों बखूबी निर्वहन किया .. मसलन पुल से नदी पार करने के लिए उन्होंने चेताया है कि वक्‍़त आ गया है /कि वही आदमी पुल बनाएगा /जो पुल पर चलते आदमी की हिफ़ाज़त कर सकेगा।
उनकी अपने खिलाफ भी लडती हुई कवितायें दिखी जैसे १) बहुत पीछे छोड़ आया हूं /अपने शरीर से घटिया शराब की दुर्गंध २)मुझे लड़ना है/अपनी ही कविताओं के बिम्‍बों के ख़िलाफ़ .....
एक सामरिक चुप्पी,रंग खतरे में है, खुनी नदी की यात्रा, दियासलाई आदि बेहतरीन कविताओं में वह समाज के प्रति बहुत चिंतित दिखते है| उनकी कविताओं में एक आवाज है जो कहती है उठो और समाज में हो रही खामियों के लिए चुप नहीं रहो.. कर्तव्यबोध के साथ कर्म किये जाने पर भी जोर देते है ...जन-संघर्ष की महानदी को
बीच आग के लाना होगा
नई विधा पाने की ख़ातिर
अपना तन झुलसाना होगा..... इसके बावजूद भी वह कभी कभी विकल हो जाते है कि उनकी कवितायें जो बाहर खुलनी चाहिए वह भीतर खुल रही है ... यह कवि का दुःख था, शायद कवि का युद्ध था जिसे वह जीतना चाहते थे ...... शिरीष जी ने कविताओं के कुछ प्रसंगों पर जिस तरह कुछ अन्य कवियों की कविताओं को भी साथ रखा, समान विषय पर भाषा शैली और विचारों का एक तुलनातमक परिदृश्य भी ... साथ में सवाल मुक्तिबोध वाला कि तय करो किस ओर हो तुम .. जन जन के सच्चे कवि कुमार विकल के बारे में एक बहुत ही उपयोगी लेख
Bahut badhiya aalekh! Kumar Vikal par baat kiye bina Hindi kavita ke vikaas ko theek se nhi samjha ja sakta.. Shirish jee aap aalochna ke kshetra mein mahatavpoorn kaam kar rahe hain!! Badhai! Abhaar Asuvidha!
शरद कोकास ने कहा…
शिरीष , आज कुमार विकल पर कुछ ढूंढते हुए तुम्हारा यह लेख दिखा , इससे पहले भी इसे पढ़ चुका हूँ लेकिन टिप्पणी नहीं कर पाया था . 23 फरवरी 1997 को कुमार विकल का निधन हुआ था , तुम्हारे इस लेख के बहाने उन्हें फिर याद करना अच्छा लगा
शरद कोकास ने कहा…
शिरीष , आज कुमार विकल पर कुछ ढूंढते हुए तुम्हारा यह लेख दिखा , इससे पहले भी इसे पढ़ चुका हूँ लेकिन टिप्पणी नहीं कर पाया था . 23 फरवरी 1997 को कुमार विकल का निधन हुआ था , तुम्हारे इस लेख के बहाने उन्हें फिर याद करना अच्छा लगा

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