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प्रेमचंद गाँधी की लम्बी कविता - भाषा का भूगोल

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भाषा क्या है? अभिव्यक्ति का साधन मात्र? ऐसा साधन जो मनुष्यों को धरती के दूसरे जीवों से श्रेष्ठ साबित कर देता है? ज़ाहिर है यह है तो इसके आगे भी बहुत कुछ है. वर्ग विभाजित असमानता आधारित समाज में दूसरी तमाम चीज़ों की तरह भाषा भी इस वर्गीय असमानता को बनाए रखने और बढ़ाने वाले औज़ार की तरह उपयोग की जाती है. वह जितना जोडती है उससे कहीं अधिक तोड़ने लगती है कई बार. भारत जैसे जाति और धर्म विभक्त और अनेकानेक उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं वाले देश में भाषा का सवाल अक्सर बहुस्तरीय होता चला जाता है.  प्रेमचंद गाँधी की यह लम्बी कविता इस गद्योचित विषय को बड़े परिश्रम से कविता में ढालती है और बौद्धिक बहस से कहीं आगे जाती है. यह पाठक से बहुत धीरज और लगाव की मांग करती है, मानसिक श्रम की भी. असुविधा का अनियमित हो चुका सिलसिला इस कविता से नियमित करने का हमारा संकल्प इस कविता की ताक़त पर भी आधारित है और प्रेम भाई के उस भरोसे पर भी कि लगभग एक साल हो जाने पर भी उन्होंने कोई उलाहना देने की जगह नया ड्राफ्ट दिया.  भाषा का भूगोल 1. बारह कोस पर बदलती है भाषा बदल जाता उच्‍चारण जीवन की टकसाल में ढलते