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भाषांतर - नेपाली कविताएँ

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नेपाली के इन पांच युवा कवियों की कवितायेँ हमें चंद्रा गुरुंग ने उपलब्ध कराई हैं. चंद्रा हिंदी नेपाली कविता के अध्येता हैं और दोनों ही भाषाओं के बीच अनुवाद का ज़रूरी काम कर रहे हैं. ये कवितायें अलग अलग मिजाज की हैं. प्रेम से लेकर राजनीति और स्त्रियों से भेदभाव जैसी मूल चिंताओं से समृद्ध इन कविताओं को पढ़ते हुए आप नेपाली कविता में उस स्वर की उत्कट अभिव्यक्ति का एहसास कर सकते हैं, जो हमारी समकालीन हिंदी कविता की भी मूल चिंता है.  जिस दिन बेटी पैदा हुई मनु मन्जिल जिस दिन मैं पैदा हुई घूप ने आँगन में उतरने से इनकार कर दिया केवल एक परछाईं सलसलाती रही दहलीज के बाहर , दहलीज के भीतर और चेहरों पर। माँ के आँखों से बुरुंस का फूल अचानक कहीं गायब हुआ पिता कल ही की नीँद में उँघते रहे सुबह भी देर तक एक नयें यथार्थ की मौजूदगी नजर अंदाज करते रहे । प्रसवोत्तर – गन्ध आसपडोस में बस्साती रही  माँ खुरदरे हातों से बासी तेल ठोकती रही माथे पे उनकी चञ्चल चूड़ियों में विरह की धुन बजती रहे । एक पुराना परदा झुलता रहा खिडकी पे गर्भ के बाहर भी सूरज ओझल होता रहा मैं और म

साहस की कमी से मर जाते हैं शब्द--केदारनाथ सिंह

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                                                    सुधा उपाध्याय          मौसम चाहे जितना ख़राब हो, / उम्मीद नहीं छोड़ती कविताएं / वे किसी अदृश्य खिड़की से / चुपचाप देखती रहती है / हर आते जाते को और बुदबुदाती है / धन्यवाद ! धन्यवाद ! अभी-अभी 2014 में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित केदारनाथ सिंह जी का कविता संग्रह सृष्टि पर पहरा पूरी तरह समर्पित है ‘ अपने गांव के लोगों को / जिनतक यह किताब कभी नहीं पहुंचेगी ’ ....ये पंक्तियां बेचैन करती हैं दिल्ली जैसे महानगर में रहने वाला कवि अपनी जड़ों में अपनी ताक़त ढूंढता है। उसकी जनता, उसकी भूमि उसके परिवेश, उसका संपूर्ण लेखन इन्हीं गांव की स्मृतियों से समृद्ध होती हैं... ग्लोबलाइजेशन के शिकार तमाम साहित्यसेवी और समाज चिंतकों के बीच स्थानीयता को न केवल मुखर करने वाला बल्कि पूरी निष्ठा और प्रतिबद्धता के साथ स्थापित करने वाला हक़ की लड़ाई लड़ने वाला लगभग 80 वर्ष का यह नौजवान जब कहता है---- चलती रहे वार्ता / होते रहे हस्ताक्षर / ये सब सही ये सब ठीक / पर हक़ को भी हक़ दो / कि ज़िंदा रहे वह …. हक़ की लड़ाई …. कभी सूर्य का हक़....क