एक थका बोझ लिये आता हूँ. ज़िंदगी चालीस की हो गई और अब तक कुछ भी नहीं कर पाया - तुषार धवल
चालीस की उम्र यानी हम जैसों के लिए ज़िन्दगी के दूसरे या फिर तीसरे हिस्से की ओर क़दम. थोड़ा ठहरने का वक़्त और फिर चलने से पहले एक साँस ले लेने का. एक मनुष्य के अपने निजी इतिहास में चालीस तक कितने इतिहास होते हैं? एक इतिहास मन का, एक देह का, एक प्रेम का, एक परिवार का. पिता की आकांक्षाओं का तो बच्चों के सपनों को अंखुआते देखने का और इन सबके बरअक्स अपना समय या असल में अपने समय के बरअक्स ये सब! छीजती देह, पकता मन और उमगती उम्मीदों के बीच हर हाल में एक अधूरा सफ़र. तुषार की यह कविता उसके दख़ल से प्रकाशित संकलन "ये आवाज़ें कुछ कहती हैं" में है. वैसे तो लम्बी कविताओं का वह पूरा संकलन ही विलक्षण है.गहन तनावों और सान्द्र अनुभूतियों की एक विकल काव्यात्मक अभिव्यक्ति जो तुषार ने हासिल की है, वह हिंदी के समकाल में मेरे देखे में अद्वितीय है. यह कविता उस उम्र की कविता है जिसमें मेरी पीढ़ी है इस वक़्त और इसका रचनात्मक विस्तार ऐसा कि साफ़ साफ़ अपना चेहरा देखा जा सकता है. "दिन की मजूरी और रात की बागबानी" करने वालों का चेहरा. एक अदृश्य पिंजड़े की ज़द में आज़ादियाँ तलाशते लोगों का चेहरा. रात रा