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संजय जोठे की कविताएँ

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संजय जोठे युवा और सक्रिय साथी हैं. अभी उन्होंने ज्योति बा फुले पर एक किताब लिखी है और एक महत्त्वपूर्ण फेलोशिप भी उन्हें मिली है. ये कविताएँ उन्होंने मुझे काफी पहले भेजी थीं. इधर की व्यस्तता के चलते इन्हें काफी देर से पोस्ट कर पा रहा हूँ.  इन कविताओं से गुज़रते हमें एक चेतन दलित युवा की विचारसंपन्न विद्रोही चेतना को देख सकते हैं. यह कथित मुख्यधारा से बहिष्कृत काव्य भाषा है, जिसमें एक सतत नकार का स्वाभाविक भाव है. यहाँ इतिहास और परम्परा का उत्खनन है और एक जिद भी अपनी पहचान को असर्ट करने की. असुविधा पर संजय का स्वागत..   (एक) मैं दलित हूँ हरिजन नहीं तुम्हारे हरि के उस सनातन हरण कर्म को जिसने समय के गर्भ से मेरे अतीत , वर्तमान और भविष्य तीनों को हर लिया मैं उसे क्यूं मानूं ? उस सनातन हरण के अधीश्वर हरि का मैं जन नहीं होना चाहता मैं दलित हूँ क्योंकि मेरा सीधा नाता अपने दलन से है तुम्हारे हरण से नहीं मैं दलित ही रहूँगा ताकि मेरे मन और देह के दलन से उपजी वह गाढ़ी सुर्ख स्याही जो मेरा भविष्य लिख सकती है फिर से तुम्हारी पुराण कथाओ