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यह किसकी आत्महत्या है- देवेश की कविता

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देवेश कविता लिख तो कई सालों से रहा है लेकिन अपने बेहद चुप्पे स्वभाव के कारण प्रकाश में अब तक नहीं आ सका. आज जब प्रतिबद्धता साहित्य में एक अयोग्यता में तब्दील होती जा रही है तो उसकी कवितायें एक ज़िद की तरह असफलता को अंगीकार करती हुई आती है. उसकी काव्यभाषा हमारे समय के कई दूसरे कवियों की तरह सीधे अस्सी के दशक की परम्परा से जुड़ती है और संवेदना शोषण के प्रतिकार की हिंदी की प्रतिबद्ध परम्परा से. इस कविता में उसने विदर्भ के गाँवों की जो विश्वसनीय और विदारक तस्वीर खींची है वह इस विषय पर लिखी कविताओं के बीच एक साझा करते हुए भी एकदम अलग है. इस मित्र और युवा कवि का स्वागत असुविधा पर. जल्द ही उसकी कुछ और कवितायेँ यहाँ होंगी.  यह किसकी आत्महत्या है (एक) श्मशान का जलता अँधेरा चीखता है बहुत तेज़ शवगंध से फटती है नाक धरती की इन सबसे बेपरवाह डोम , सीटी बजाता , झूमता , चुनता है हड्डियाँ और नदी में डाल देता है.. डोम राजा है शव प्रजा नदी अवसाद में है.. (दो) बहुत दूर से चली आती है बांसुरी की आवाज़ सनकहवा बांसुरी बजाता जा रहा है भीड़ मारती है पत्थर ,  वह

इन दिनों देश

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बेहतर तो यही होता कि इस कविता के किसी पत्रिका में छपने की प्रतीक्षा करता...पर आज इसे सीधे अपने पाठकों और साथियों तक पहुँचाना उचित लगा। --------------------- पिकासो की पेंटिंग गुएर्निका इन्टरनेट से साभार  दिशाएँ पिघलते बर्फ सी बेशक्ल गोजर की तरह असंख्य पैरों से रेंगती समय की पीठ पर कच्छप से   खुरदुरे निशानों में समय को बींधते से कंटीले बाड़ बांधती  उस पार से इस पार तक रिस रिस कर जा रही हैं   क्वार की अनमनी धूप सी कसमसा रही हैं। पश्चिम दिशा का सूर्य पूरब   तक आते आते डूब जाता है। उत्तर दिशा में चाँद का हसिया काटता है सारी रात तम की फसल और हारकर फिर दक्षिण की नदी में डूब जाता है। पूरब दिशा में जहाँ होता था एक तारा एक खोह है रौशनी को लीलती उषा का संगीत नहीं बिल्लियों के रोने का स्वर समवेत एक स्त्री भूख के हथियार से लड़ रही हारा हुआ सा युद्ध बंदूकें सम्भाले जंगलों में भटक रहे हैं सैकड़ो बेमंज़िल हरे पेड़ों से टपक रहा खून लगातार रासलीला के ठीक बीच लास्य से तांडव में बादल गयी है मुद्रा विष्णु ठेका से दुई ठेका के बीच गोलियों की आवाज़ से भटक गयी है ताल पहाड़ों

विपिन चौधरी की कविताएँ

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हमारी पीढ़ी की महत्त्वपूर्ण कवि विपिन लगातार बेहतर कविताएं लिख रही हैं। असुविधा पर आप उन्हें कई बार पढ़ चुके हैं। उसकी ये चार कविताएं प्रेम को केंद्र में रखकर हैं , लेकिन टिपिकल अर्थों में प्रेम कविताएं नहीं हैं। यहाँ प्रेम के सामाजिक व्यापार से उपजे तमाम रंग हैं, प्रेम की राजनीति के कई अंतःपुरीय आख्यान हैं और एक स्त्री की इन सबमें अवस्थिति भी। बाक़ी सब पाठकों पर छोडकर मैं विपिन को इन कविताओं के लिए बधाई देना चाहता हूँ।  अभिसारिका ढेरों सात्विक अंलकारों संग   हवा रोशनी ध्वनि   से भी तेज़   भागते   मन को थामे     सूरजमुखी के   खिले फूल सी   चली प्रिय - मिलन - स्थल की ओर     पूरे चाँद की छाँह   तले सांप बिच्छुओं तूफ़ान   डाकू लुटेरों के भय    को त्वरित लांघ एक दुनिया से दूसरी दुनिया में रंग भरती   अभिसारिका     सोचती हुयी ,  होगी धीरोचित प्रेमी    से मिल तन - मन की   सारी गतियाँ   स्थगित   निर्विकार चित्त   में प्रेम ,  शीशे में पड़े   बाल सा    प्रेमी को   यथास्थान न पा   लौटी जब   उन्हीं