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नेपाली युवा कवि सुमन पोखरेल की कविताएं

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नेपाली के युवा कवि सुमन पोखरेल की ये कविताएं उस जीवन जगत के प्रामाणिक चित्र हैं जिनसे कवि वाबस्ता है।  यहाँ बच्चों का एक मासूम जीवन है जिसमें बहुत सी बदशक्ल सरंचनायेँ भी उनके स्पर्श से कोमल हो जाती है, बनता-बिगड़ता-बदलता शहर है जो अपनी सारी गैरियत के बावजूद अपना है और प्रेम है ताजमहल के सम्मुख स्मृतियों और उम्मीदों के थरथराते पुल से गुज़रता। इंका हिन्दी अनुवाद खुद कवि ने किया है। असुविधा पर उनका स्वागत   बच्चे तोडना चाहने मात्र से भी उनके कोमल हाथों पे खुद ही आ जाते हैं फूल डाली से, उनके नन्हे पाँव से कुचल जाने पे आजीवन खुद को धिक्कारते हैं काँटे । सोच समझकर सुकोमल, हल्के हो के बारिकी से बसते हैं सपने भी उनके आँखों में । उन के होठों पे रहने से उच्चारण करते ही खौफ जगानेवाले शब्द भी तोतले हो के निकलते हैं । चिडियों को ताने मारती हुई खिलखिला रही पहाडी नदी उन की हंसी सुनने के बाद अपने घमन्ड पे खेद करती हुई चुपचाप तराई की तरफ भाग निकलती है। खेलते खेलते कभी वे गिर पडे तो उनकी शरारत के सृजनशीलता पे खोयी हुई प्रकृती को पता ही नहीं चलता कि,

दुनिया भर की शराबों में जितना भी अल्कोहल है, सब गुरुदत्त है.: बाबुषा की कविताएँ

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बाबुषा उन कवियों में से है जिसे पढ़ना हर बार किसी ज्ञात के भीतर के अज्ञात का साक्षात्कार करना सा लगता है. अब एक लंबा वक्फ़ा हुआ उसे पढ़ते. 2011 में उसकी कविताएँ असुविधा पर शाया हुई थीं ईश्वर के साथ बैठकर भुट्टा खाने की उसकी वह दीवानावार चाह वक़्त के साथ दीवानगी के नए मरहलों से गुज़री है. भाषा उसका बंदीगृह कभी नहीं बन पाई. किसी परम्परा से उसे जोड़ने का बोरिंग काम आलोचक करें. मुझ जैसा पाठक तो उस इमेजरी से रश्क करता है जो वह हँसते खेलते बनाते तो दिखती है पर एक कलमघसीट जानता है वह किस क़दर लहू पी के सुलझती होगी.   ये कविताएँ हंस के ताज़ा अंक में आई हैं. मैंने कल उससे माँगी तो "लो, जो करना हो करो" वाले अंदाज़ में उसने भेज दीं. तो एक बार फिर यह हंगामाखेज़ दोस्त और मानीखेज़ शायरा असुविधा पर... हरा गहरा नहीं मिलता अरसा बीता किसी काली रात की गहरी खोह में बैठे इस कदर जगमग हैं चौबीसों घन्टे   कि गहरी नीदों में छुपने लायक अँधेरा नहीं मिलता गाँवों में तक नहीं मिलते अब मीठे पानियों वाले गहरे कुएँ कब से नहीं मिला कोई मरने की हद तक घायल   किसी की आत्मा पर घाव अब गहरा नहीं