सुमन केशरी की ग्यारह कविताएँ
सुमन जी परम्परा के साथ एकात्म होने की हद तक तादात्म्य बिठा कर अपने समय से सीधा संवाद करने वाले विरले कवियों में से हैं. मिथकों, लोक कथाओं और पारम्परिक स्रोतों से जितना ईंधन उन्होंने लिया है उतना शायद ही किसी समकालीन कवि ने. और इस आँच पर जो पक कर निकला है वह समय की विद्रूपताओं को उद्घाटित करने और उनसे टकराने के लिए अपने संयमित किन्तु दृढ़ स्वर में प्रतिबद्ध काव्य संसार है. हमारे अनुरोध पर उन्होंने असुविधा को ये कविताएँ उपलब्ध कराई हैं, देरी के लिए माफ़ी के साथ हम उनके आभारी हैं.
मछलियों के आँसू..
वे
मछलियों के आँसू थे जो अब
उस
विशाल भवन की दीवारों पर बदनुमा दाग बन कर उभर रहे थे
अलग
अलग शक्ल अख्तियार करते..
ये
धब्बे बढ़ते चले जाते थे ऊपर और ऊपर...
एक
दिन देखा छत पर आकृतियाँ बन गई हैं
घड़ियाल,
मछली, घोंघे, सीप,
बगुले-बतखें,
मान
सरोवर वाले हँसों की..
कुछ
अनजानी वनस्पतियाँ उग आई थीं छिटपुट कहीं कहीं
आसमान
सूखा था
निपूती
विधवा की आँखों –सा
एकदम
विरान
निष्प्राण...
विदा होती बेटियाँ
मैं
देखना चाहती थी
विदा
होती बेटियों की आँखों में
कि
उन आँखों से बहते आँसुओं में
विरह
की वेदना थी
या
था भय अकूत
सपने
थे नए नए
या
दुःस्वप्नों का बिछा था जाल
आश्वस्ति
थी
या
थी याचना अपार
विदा
होती लड़कियाँ
बहते
आंसुओं से सींच रही थीं
आंगन
जहाँ
गड़े थे उनके नाभि-नाल
विदा
होती लड़कियाँ समूल उखाड़ रही थीं खुद को
आंचल
में अपनी जड़ें समेटतीं
विदा
होती लड़कियाँ बहते आँसुओं से
अपने
कदमों के निशान मिटाती चली जा रही थीं
दूसरे
देस
गाती
बाबुल
मोरा नईहर छूटो रे जाए...
लड़कियों
के अपने देस की कोई कथा सुनी है क्या तुमने?
3.
ज्यों
आसमान पर जहाज उड़े
त्यों
आया था वो चाकू
और
धँस गया ऐन कलेजे में
जैसे
उसे पता हो कि धँसना कहाँ है
दर्द
और डर में से
कौन
जीता उस चीख में
यह
तो उस तक को पता न चला
जो
गिरा इस तरह
कि
चाकू आर-पार हो गया
कलेजे
और पीठ के
अब
चाकू का फल क्षितिज की ओर तना था
क्षितिज
लाल हो चला था
दूर
दूर तक कोई न था
सिवाय
घोड़े के टापों-सी
उलझते
दौड़ते दूर होते कदमों के आवाज
धरती
के फुट भर हिस्से को रंगता वह आदमी
अब
भी डर और दर्द के उलझन में पड़ा था
कड़ियाँ
लपेटता...
4.
यदि
वह कहता कि
आसमान
से उस रात आग बरसी
तो
कोई उस पर विश्वास न करता
क्यों
कि
दूर
दूर तक उस रात न कहीं बिजली चमकी थी
न
कहीं पानी बरसा था
बादल
तक नहीं थे उस रात आकाश में
चाँद-तारों
भरी वो सुंदर रात थी
ठीक
परियों की कहानियों की तरह...
यदि
वह कहता कि डूब गया वह गहरे समंदर में
तो
कोई विश्वास न करता उसके कहे पर
क्योंकि
वह जीता-जागता खड़ा था
ऐन
सामने
यदि
वह कहता कि
बहरे
कर देने वाले इतने धमाके उसने कभी नहीं ने
नहीं
सुनी ऐसी चीखें
तो
हम सब हँस पड़ेंगे उस नासमझ पर
कि
वह हमारा कहा सब सुन रहा था
हाँ
बस देखता जाता था बेचैन
कि
कैसे बताए हमें वह
उस
रात के बारे में
जब
उसने अपने ही पड़ोसियों को बाल्टी उठा
पेट्रोल
फेंकते देखा था घरों पर
कैसे
बताए कि
आया
था उड़ता एक गोला और
आग
बरसने लगी थी चारों ओर
कैसे
बताए उस रात अँधेरे की गोद गरम थी
बावजूद
धड़कते दिल के काँपते जिस्म के
कैसे
बताए तब से अब तक
कितनी
बार धँसा है वो समंदर में
आग
बुझाने
कोई
नहीं मानता उसकी बात
कोई
नहीं जानता अथाह समंदर
5.
घर
घर
सुनते ही वह अपने भीतर सिमट जाता था
मानो
वही उसका घर हो
घर
सुनकर कभी उसके चेहरे पर मुस्कान नहीं दिखी
बाँया
गाल और कान जरूर फड़कते थे
क्षण
भर को
फिर
वही वीरानी
जो
दोपहर को रेतीले टीलों पर
आखिरी
ऊँट के गुजर जाने पर होती है
नमी
आँख में भी नहीं
सुन्न
वीरान
तेरह
साल का वह चेहरा
सैकड़ों
सालों से अकाल की मार खायी जमीन पर
तेरह
सदी पहले बनी दीवार-सा था
घर...
घर...
घर...
कई
बार उच्चारा मैंने
और धंसती चली गई अंधे कुएँ में...
आत्महत्या
उसने
आत्महत्या की थी
इसीलिए
बरी
था देश
नेता
बरी थे
बरी
था बाजार
खरीददार
बरी थे
बरी
थे माँ-बाप
भले
ही कोसा था उन्होंने
उसकी
नासमझी को बारंबार
कि
उसने इंजीनियरिंग छोड़
साहित्य
पढ़ा था
सो
भी किसी बोली का
इससे
तो भला था
कि
वह
खेत
में हल चलाता
दूकान
खोल लेता
या
यूँ ही वक्त गंवाता
कम
से कम पढ़ाई का खर्चा ही बचता
भाग्य
को कोस लेते हम
पर
बची तो रहती कुछ इज्जत
न
पढ़ने से कुछ तो हासिल होता
बरी
थी प्रेमिका
हार
कर जिसने
माँ-बाप
का कहा माना था
भाई
बरी था
बावजूद
इसके कि फटकारा था
बच्चों
को उससे बात करने पर
बरजा
था पत्नी को
नाश्ता-
खाना पूछने पर
बहन
बरी थी
उसने
न जाने कितने बरसों से राखी तक न भेजी थी
बरी
थे दोस्त
परिचित
बरी थे
आखिर
कब तक समझाते
उस
नासमझ को
कि
न कुछ से भला है
किसी
होटल में दरबान हो जाना
या
फिर सिक्योरिटी गार्ड की
वर्दी
पहन लेना
आखिर
न इंजिनियरी पढ़ा था वो
न
ही मैनेजमेंट
भला
तो यह भी था कि
किस्से-कहानी
सुना
या
यूँ ही कुछ गा बजा
भीख
ही मांग लेता
कुछ
तो पेट भरता
तो
आखिर
पुलिस ने मान लिया
कि
आत्महत्या हुई
उन्हीं
किताबों के चलते
जिनमें
कल्पनाएँ थीं और थे सपने
डरावनी
आशंकाएँ थीं
भ्रम
थे अपने
सो
उसकी लाश के साथ किताबें भी जला दी गईं
अब
घर
सपनों
अपनों और कल्पनाओं से मुक्त था
अपने
में मगन
जमीन
में पैबस्त...
7.
यूँ
तो निकल गई हूँ मैं
तुम्हें
बतलाए बिना ही लंबी यात्रा पर
पर
मुझे मालूम है कि तुम
पंचतत्त्वों
के हाथों
भेजोगे
जरूर मुझ तक
कुछ
मेरी तो कुछ अपनी पसंद की चीजें
उन्हें
तरह तरह की हिदायतें दे देकर
ले
आई हूँ अपनी आँखों में संजोकर
तुम्हारे
बाएं गाल के तिल की मासूमियत को
पर
भेज देना वहीं छूट गया मेरे होठों का स्पर्श
भेज
देना चार-छह मोरपंख जंगलों से बीन बीन
बाँस
की ताजी कुछ कलमें
हरसिंगार
के कुछ फूल और अमलतास की पीली लटकन
तोते
का अधखाया अमरूद
मेंहदी
के बौर री खुशबू तो भूलना ही मत
पेड़
से गिरे कच्चे आम की मादक सुगंध भी भेज देना
भेज
देना सागरतट पर बिखरे नन्हे शंख और सीपियाँ
देखना
उनके प्राणी जीवित न हों
जीवित
शंखों-सीपियों को सागर को लौटा देना
रेत
पर अपने पाँवों के निशान की छाप भेज देना
याद
है न कितनी कितनी दूर तक चले थे हम साथ साथ
अब
तुम चलना
मैं
निशान अगोरा करूंगी
चाँद,
सूरज, तारों और हवा को कहना मेरा प्रणाम
धरती
को छू देना क्षमा याचना के साथ
देखकर
क्षितिज को
छिड़क
देना जल की बूंदे सब चर अचर पर
लेकर
मेरा नाम
और
सबसे अंत में
प्रिय
तुम
स्मृतियों के सारे
पन्नों
को सहेज-समेट
मेरी
ओर उछाल देना
सदा
सदा के लिए...
शब्द और सपने-1
वह
पलकों से सपने उतरने का वक्त था
जब
मैं उठी
और
सभी सपनों को बाँध
मैंने
उन्हें जागरण की गठरी में बंद कर दिया
सपने
अब जागरण में कैद थे।
जागरण
में आसमान से गिरते झुलसे पंख लिए पक्षी थे
जो
चूहे बन दफ़्न हो रहे थे जमीन में
गोलियों
की धाँय धाँय के बीच
अब
सन्नाटा था
और
उसे चीरती मेरी चीख थी
जो
स्वप्न और जागरण की संधि से फूटी थी
शब्द
कहीं नहीं थे...
शब्द और सपने- 2.
सपने
में शब्द
एक
एक कर दफ़्न किए जा रहे थे
जागरण
की जमीन में
पानी
कहीं नहीं था
सदियों
बाद हुई खुदायी में
बस
हवा की सांय-सांय थी
सायं
सायं सायं सायं
पानी
तब भी कहीं नहीं था
शब्द और सपने-3
सपने
में शब्द पक्षी थे
हाराकिरी
करते पक्षी
उनकी
चोंच और आँखें लहूलुहान थीं
हवा
उनकी
नर्म देह जमीन पर बिछने से पहले ही
सोख
ले रही थी
उनके
पंखों की गर्मी और देह की गंध
अब
सपने में भी साँस ले पाना दूभर था...
शब्द और सपने-4
सपने
में शब्द
अपनी
नुकीली जीभ से
पृथ्वी
खोद रहे थे
पेड़ों
की जड़ें
अनावृत
जंघाओं-सी उधड़ी पड़ी थीं
रक्त
से सूरज लाल था
दिशाएँ
काँप रही थीं
थर्रायी
अग्नि सागर में जा छिपी थी
वाचाल
हवा
बौराए
शब्दों की ऋचाएँ रच रही थी
पत्ते
निःशब्द थे..
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