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जितेन्द्र बिसारिया की लम्बी कविता - जोगी

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  जितेन्द्र मूलतः कथाकार हैं लेकिन कविताएँ भी लगातार लिखते हैं. लोक और इतिहास का एक सुन्दर और मानीखेज़ समन्वय उनके यहाँ समकालीन आख्यान की शक्ल ले लेता है. इधर नाथ सम्प्रदाय पर बात चली तो मुझे उनकी भेजी यह लम्बी कविता याद आई. आप भी पढ़िए  जोगी ! आज मत जा आज उत्तर की हवाओं ने मुझ से की है कुछ कानाबाती आज फिर बेला फूले हैं गुड़हल ने बिछाये हैं कुछ अंगार सेज आज फिर सूनी है जोगी ! आज फिर बिछड़ी है कोई सारस जोड़ी कि सिवान वाला ताल भर गया है उसकी करुण क्रेंकार से कि मछली फिर छली गई है एक पद ध्यानस्थ बगुलों से कि तोड़ा है दम फिर कहीं ज़ाल में फंसी हिरनी ने जोगी ! बहुत डर लगता है दक्खिनयां हवाओं से कि मेरे पिछवाड़े वाले महुए पर उल्लू , खूसटियाँ और चमगादड़ों की शक्ल में जैसे आ बैठे हैं कोई इब्लीस जोगी ! पहले जब चैत की चांदनी में हो रही होती मद की बारिस लेकर छबलिया मैं पहुँच जाती थी अकेले ही फूलों के बहाने चुनने अपने हिस्से का