संज्ञा उपाध्याय की कविताएँ
लमही के ताज़ा अंक में संज्ञा की कविताएँ देखना मेरे लिए सुखद आश्चर्य सा था.कविताओं की वह गंभीर और सहृदय पाठक है, यह मैं जानता था और यह भी कि उसने कभी-कभार जो कविताएँ लिखी हैं, उनके प्रकाशन को लेकर कभी उत्साहित नहीं रही. कहानियाँ उसकी आई हैं, बच्चों के लिए ख़ूब लिखा है और कथन के समय उसके वैचारिक लेखन से हम सब परिचित और प्रभावित रहे हैं.
लेकिन इन कविताओं को पढ़ते यह मान पाना बेहद कठिन है कि ये उसकी आरम्भिक कविताएँ हैं. भाषा की जो सहजता यहाँ है और जिस तरह का मितकथन है, वह आपको रोकता है और कवि के साथ दूर तक ले जाता है. यहाँ निज से सार्वजनीन तक की वह यात्रा है जो एक कविता को व्यापक पाठक वर्ग के लिए अपनी कविता बनाती है, वह इसमें अपने जीवन की छवियाँ देख पाता है. इन्हें पढ़ने के बाद मुझे उससे और कविताओं की उम्मीद रहेगी...
भय नहीं घुल-धुल जाने का
दिन भर धूप में
तपी
सूखी सूनी सड़क पर चलते हुए बेखयाली में
बारिश और तुम
बस यही है ख़याल में.
बस यही है ख़याल में.
ठीक इन्ही शब्दों में यही पूरी बात
चलते-चलते टाइप करती हूँ एक मैसेज में
भेजती हूँ और इंतज़ार भूल जाती हूँ
जानती हूँ ख़ूब बरसात हो रही है तुम्हारे शहर में
मेरा मैसेज भीग रहा है उसी में जी भर.
तकनीक को धता बता अलमस्त
यहाँ-वहाँ भागता भीग रहा है बस.
बेपरवाह कि भय नहीं
घुल-धुल जाने का.
मन भर मन की कर
तर-ब-तर
तर-ब-तर
पहुँचता है
तुम तक...
मेरे मोबाइल में बिजली कौंधती है
तुमने लिखा है--बारिश!
और मैं भीगती हूँ...
तुमने लिखा है--बारिश!
और मैं भीगती हूँ...
रास्ते में
वह जो सिर झुकाये बैठा है
अभी ज़रा देर में सिर उठायेगा
सधी आँखों से देखेगा दूर
न दिखती अपनी मंज़िल की ओर
और चल देगा
सिर झुकाना हमेशा हताशा में कहाँ होता है!
तुम ही यह कर सकती हो
तुम ही यह कर सकती हो, नदी!
दुखों, तकलीफों, तिक्त अनुभवों के भारी नुकीले चुभते पत्थर
दुखों, तकलीफों, तिक्त अनुभवों के भारी नुकीले चुभते पत्थर
सब के सब मृदु स्मृतियों में बदल देती हो
तुम ही यह कर सकती हो, नदी!
फिर चाहे तुम में पानी बहे कि वक्त...
तुम ही यह कर सकती हो, नदी!
फिर चाहे तुम में पानी बहे कि वक्त...
लव्ज़ मी...लव्ज़ मी नॉट...
फूल हाथ में लेती हूँ
एक-एक कर इस यकीन से तोड़ती हूँ
सारे डर और शुबहे
कि आखिरी पंखुड़ी के साथ हर बार
बचा रह जाता है उम्मीद की तरह प्यार
उम्मीद
उमस रही बस की खिड़की से बाहर तकता बच्चा
बादलों संग भाग रहा है आसमान में
बादल कहाँ जा रहे हैं?
माँ के सूखे गले से बहलाने का चालाक सुर नहीं
उम्मीद की खनक फूटती है--
पानी लाने
अपनी आवाज़ में किसान पिता का स्वर सुन
चौंक जाती है
मुस्कराती है
बादल अब भी उम्मीद का पानी लाने ही जाते हैं.
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Email : upsangya@gmail.com
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"हर दिल की पंखुडी और दिमाग़ की परतें खोलते हुये" कि "क्या वो मेरे लायक है , क्या वो मेरे लायक नही है...