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आशीष बिहानी की लम्बी कविता

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नरेश सक्सेना और अमित उपमन्यु के अलावा शायद ही किसी कवि के यहाँ इंजीनियरिंग और विज्ञान से सहज बिम्ब आ पाए हैं, ऐसे में आशीष के यहाँ उनकी सहज आवाजाही पहली दृष्टि में तो शिल्प के स्तर पर ही प्रभावित करती है. लेकिन महत्त्वपूर्ण यह है कि आशीष उन बिम्बों और उपमानों में उलझते नहीं बल्कि उनका सार्थक इस्तेमाल एक काव्यात्मक विडम्बना के चित्रण में करते हैं जो इस युवा की असीम संभावनाओं का पता देता है. इस लम्बी कविता के साथ मैं असुविधा पर उनका स्वागत करता हूँ. बहुत जल्द अमित उपमन्यु की नई कविताएँ भी असुविधा पर शाया होंगी.   खाण्डव (१) ये बारिश नहीं विस्मित करती तुम्हें  तुम अनिच्छुक हो    उलझ पड़ने के लिए  हवाओं से  जो धुर मध्य से सुदूर क्षितिज तक  झुके बादलों को बहा ले जाना चाहती है  ये बारिश सुन्दर नहीं है  ये गड़गड़ाहट है अंदेशों की समय के गुजरने की घटनाओं की रेलों की डॉप्लर विकृत पुकारें ये आवाज़ है फिसलन के उभरने की (२) ये आवाज़ है  अँधेरे कीचड़ में भागते सैकड़ों पैरों की सदियों के बोझे लिए अबूझे-अजाने भयों के अकुलाए गलती लाशों में धंसते-लड़खड़ाते स्पष्टता की आशा भरे  पेड़ों की ओट में  कोई विर