आशीष बिहानी की लम्बी कविता


नरेश सक्सेना और अमित उपमन्यु के अलावा शायद ही किसी कवि के यहाँ इंजीनियरिंग और विज्ञान से सहज बिम्ब आ पाए हैं, ऐसे में आशीष के यहाँ उनकी सहज आवाजाही पहली दृष्टि में तो शिल्प के स्तर पर ही प्रभावित करती है. लेकिन महत्त्वपूर्ण यह है कि आशीष उन बिम्बों और उपमानों में उलझते नहीं बल्कि उनका सार्थक इस्तेमाल एक काव्यात्मक विडम्बना के चित्रण में करते हैं जो इस युवा की असीम संभावनाओं का पता देता है. इस लम्बी कविता के साथ मैं असुविधा पर उनका स्वागत करता हूँ. बहुत जल्द अमित उपमन्यु की नई कविताएँ भी असुविधा पर शाया होंगी.  

खाण्डव

(१)
ये बारिश नहीं विस्मित करती तुम्हें 
तुम अनिच्छुक हो   
उलझ पड़ने के लिए 
हवाओं से 
जो धुर मध्य से सुदूर क्षितिज तक 
झुके बादलों को बहा ले जाना चाहती है 
ये बारिश सुन्दर नहीं है 
ये गड़गड़ाहट है अंदेशों की
समय के गुजरने की
घटनाओं की रेलों की
डॉप्लर विकृत पुकारें

ये आवाज़ है फिसलन के उभरने की

(२)
ये आवाज़ है 
अँधेरे कीचड़ में भागते
सैकड़ों पैरों की
सदियों के बोझे लिए
अबूझे-अजाने भयों के अकुलाए
गलती लाशों में धंसते-लड़खड़ाते
स्पष्टता की आशा भरे 
पेड़ों की ओट में 

कोई विराट हंटरधारी
मानों इधर-उधर मुँह फेरता है 
जिसके पीठ पीछे 
वो ओट से ओट तक भाग पहुँचते हैं 
रौशनी के जंजाल में रास्ता बनाते हुए 

आदिकाल से वो दौड़ते आए हैं 
यूँ ही 
हर मानसून
स्वाभाविकता की वेदी पर कोड़े खाते, सर कटाते
चढ़ाकर रिश्वत 
खरीदते अस्तित्व 
बचाते स्मृतियाँ

कि खून सने मैदानों से होते हुए ये खेप
पहुँच जाए 
एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक 
कि रह जाए कुछ चेतना 
उस सब में... जो जीवित है 

(३)
शस्त्र से, अस्त्र से
मैदान में दौड़ने वाली हर वध्य सत्ता का
वध करने को
सूट-पैंट-हैट पहने, अपनी त्वचा पर खून के जमे पाउडर को कुरेदते 
वो संयत हो देखते हैं इधर-उधर अधीरता से 

एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक
जाने वाली इन खेपों को उन्हें नष्ट करना है यथासंभव
मानवता का पीप
नासूर बनने का लक्ष्य किए
बहता है 
नए समाजों के शरीरों को जीवित ही पचाता 
उन्हें इतिहास से निकले जीवाश्मों 
की जिंदा नक़ल बनाता 

उबलते सर
भभकते ह्रदय
फड़कतीं ऑंखें

ऊसर मैदान को पार करते पीप तैयार हैं 
निगलने को 
समय के बचे हुए पायदान
जिनपर बाँध बनाया जाता है 
उन्हीं के कटे सरों से 

(४)
बारिश रौंद देती है 
दीवारों को, बाड़ों को 

समय के अँधेरे और रौशन पायदानों में फ़र्क
घुल कर बह जाता है 
बूंदों के तीक्ष्ण तानों में 

फसलें मानवोइड आकारों की,
सर उठातीं हैं 
उखड़ती त्वचा 
विडरूप अंग
संतुष्टि-स्मित चेहरे 
अपने अस्तित्व की रेखाओं से बाहर चूते
अपघटन के कगार पर खड़े कपार

तैयार
आलिंगन को 
जिसमें दम घुट जाना है
साफ़ पानी, साफ़ हवा और ढंग से बने मकानों का  
गूँज बचती चीखों की 
जो तैरती हुई पहुंचती रहेगी 
कई पायदानों तक 
जो जीवित रखेगी 
प्रकृति को 
बिना गलाए

(५)
दलदलों के आवर्त संघर्ष से 
उठती गैसें 
लगभग मूर्च्छित कर देतीं हैं
आकाशमार्ग से पहाड़ ले जाते देवों को 

वो हवाले कर देते हैं 
इस कोरल खाण्डव को  
पुनर्जन्म के 
निस्पृह अग्नि में 
शुद्धिकरण,

स्वाहा, स्वाहा, स्वाहा.

(६)
पायदानों की रेत 
तप रही है 
बेतहाशा
पीली पपड़ियों, राख और नयी भुरभुरी लाशों से ढकी पृथ्वी 
सूक्ष्मतम जीव भी दग्ध हुए
हवा गर्म होकर उठ गयी दूर

सब शुद्ध है 
सब स्पष्ट है 
सब रिक्त है 
कम से कम शब्दों में बहुत कुछ कह देने 
वाली कविता सा

सुरुचि के दंभ से लदे पेड़ों के ठूंठ 
एक बार फिर सुलगने लगे हैं 
पड़ौस के चन्दन वनों से आने वाली 
शीतलमंदसुगंध बयार से छिलकर
सुरुचि को एक तीक्ष्ण, आहत दृष्टि से देखा प्रकृति ने 
और मुष्टिप्रहारों से चूर्ण-चूर्ण कर दिया 

ठूंठ हवा के प्रभाव से छिन्न-भिन्न हो गए, भरभरा कर ढह गए  
शुचिता के आखिरी शोले 
बुझ गए नयी बयारों की बरसातों में 
रक्तिम सूर्य अस्त हुआ, और 

"स्वर्णिम" अध्याय समाप्त.

(७)
रिक्त होना है पूर्ण होना 
बहुत ही कम समय के लिए
जब पूरा ब्रह्माण्ड षड्यंत्र करता है 
तुम्हारे एकालाप को निकाल बाहर करने को 

मिट्टी के अन्दर थुलथुल में 
बारिश का पानी रिसता है
चन्दनी बयारों के साथ आए फफूंद
जीवाश्मों में अपना घर बना लेते हैं 
दुर्गन्ध और नमी से ओत-प्रोत धुंध 
तैरती है 
चन्द्रिका से दैदीप्यमान

उग आए नए हंटरधारी
सावधान होकर 
ढूंढते पीब के स्रोतों को 
सर काटते नए कुकुरमुत्तों के 
जो बढ़ रहें हैं उनके मैदानों से होकर 
नए सुगबुगाते दलदलों की ओर
पड़ौस के गाँव जो दाह की चपेट में आ गए 
जिन को बताया जाना बाकी है 
तक्षकों के नरसंहार के बारे में 
जिनके बुलबुले फट नहीं रहे सम्पूर्ण हिंसा से 
जले हुए झोंपड़े जिनमें, यह सुनिश्चित किया जाना है 
कि, पुनः कोई न रहे 

(८)
खाण्डव फिर सुगबुगा रहा है 
पीले-रक्तिम धागों से दलदलों 
के कुकुरमुत्ते जुड़ रहें हैं एक दूसरे से 
निगल रहे हैं 
उर्वर भूमि को 

तुम विस्मित हो अब 
दुनिया की आग ख़त्म हो जाने वाली है 
ज्वालामुखी प्रस्फुटित होना कब का बंद कर चुके 

घटनाएँ घुल गयीं हैं समय में 
पुकारें पिघल गयीं हैं 
अँधेरे से बीजाणु हिसहिसाते है 
सभ्य विश्व की ओर तिरस्कार से देखते 
लालित्य से उकेरे गए हस्ताक्षर 
जिन्हें वो कुतर डालेंगे अगले दहन से निकलकर 
जब होगा नहीं उन्हें रोकने वाला कोई भी

(९)
तुम उत्प्रेरक हो 
तुम्हारे ही सर्वनाश के 

तुम उलझोगे बीजाणुओं से लदीं हवाओं से 
और मार डाले जाओगे 
उन रेखाओं के बरअक्स
जो तुमने मनमाने ढंग से खेंच दीं थीं 
जड़ और चेतन 
नैतिक और अनैतिक 
सिद्धांत और व्यवहार
दो फाड़ कर दिए थे 

अंतिम समाधान होता नहीं कभी 
अंतिम
गीत बंधते नहीं काफ़ियों में 
आग ख़त्म नहीं होती कभी
बस बिखर जाती है बहुत तरल होकर दिशाओं में 
मृत्यु पर ख़त्म नहीं होतीं कविताएँ
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कोशिका एवं आणविक जीव विज्ञान केंद्र, हैदराबाद  में शोधरत आशीष की कविताएँ महत्त्वपूर्ण ई पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं और एक संकलन 'अन्धकार के धागे' नाम से प्रकाशित हुआ है. 

उनसे  ashishbihani1992@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. 

टिप्पणियाँ

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 30-11-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2803 में दिया जाएगा
धन्यवाद
Onkar ने कहा…
सुन्दर कविता

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