उस शहर को हत्यारों के हवाले कैसे कर दें -- हिमांशु पांड्या की कविता

हिमांशु पेशेवर कवि नहीं हैं. वह घटनाओं पर कविता नहीं लिखते लेकिन उनका लिखना कई बार घटना की तरह घटित होता है.  सांस्कृतिक आंदोलनों में सक्रिय उनका प्रतिबद्ध राजनीतिक मानस जब रचनात्मक शक्ल में आता है तो वह एक मानीखेज़ वक्तव्य में तब्दील हो जाता है. राजसमन्द की बर्बर घटना के बाद साम्प्रदायिकता के खौलते दहनपात्र में तब्दील उदयपुर को केंद्र में रखकर लिखी इस कविता के स्थानीय नाभिक की परिधि में हिंसा और नफ़रत से जलती ग्लोबल हक़ीक़त है.   



Konstantin Makovsky की पेंटिंग Still Life (Palace of Facets) इंटरनेट से साभार 

उस शहर को हत्यारों के हवाले कैसे कर दें

आपको यह नौकरी क्यों चाहिए
किसी को भी नौकरी क्यों चाहिए होती है चपंडुक 
बहरहाल मैंने गुरुगम्भीर चेहरा बनाकर कहा
आपको सच सुनना है या आदर्शवादी उत्तर 
सच ! सच ! किसी रहस्य को जानने के रोमांच से वे उत्फुल्लित हो उठे.
मैंने उन्हें निराश नहीं किया.
असल में मुझे शादी करनी है 
और उसके लिए अपने पाँवों पर खड़ा होना जरूरी है 

तीर ने मलयकेतु को बेध दिया.
चार महीने में मैंने वादा भी निभाया.
और उस झीलों के शहर में
एक जोड़ी बिस्तर और चार मुड्ढों के साथ हमने गृहस्थी शुरू की.
बाज़ार चलो आठ बजे प्रज्ञा कहती 
ये मुम्बई नहीं है मेरी जान 
यहाँ दुकानें आठ बजे बंद हो जाती हैं 
फिर मुम्बई की लड़की के लिए शहर ने थोड़ा बदलना शुरू किया 
और थोड़ा हमने उस शहर को खोजना शुरू किया जो देर तक जागता था 

हमने इस शहर में एक दूसरे से इश्क किया 
हमने इस शहर में इस शहर से इश्क किया 
इस शहर ने हमें कितना कुछ सिखाया 
लालाराम ने स्कूटर चलाना सिखाया 
शैलेन्द्र ने कार चलाना सिखाया 
आशुतोष जी ने फर्स्ट डे लास्ट शो देखना सिखाया 
मेरे विद्यार्थियों ने मुझे शिक्षक बनना सिखाया 
जो कि बेशुमार थे और हर गली हर सड़क पर मिल जाते थे 
इसलिए प्रज्ञा हाथ पकडती तो मैं झटक देता 
डू नॉट इंडल्ज इन पीडीए
पर ये शहर मेरी तरफ़ नहीं प्रज्ञा की तरफ था 
वह खुश होता था 

हम इस शहर में क्यों ठहर गए इसकी कहानी दंतकथाओं सरीखी है जो तब शुरू हुई थी जब टोंक के वनस्थली विद्यापीठ में सन सत्तर के आसपास काकाजी बाबा ने अपने मंझले बेटे से कहा था कितनी सुन्दर जगह है सुमता तू तो यहीं रह जा. पिताजी सुनाते थे तब कहते थे मैं उनका सबसे कमज़ोर बच्चा था, उन्हें लगता था इसकी बड़े शहर में कहाँ निभेगी. और ठीक तीस साल बाद अप्पा ने प्रज्ञा का हाथ अपने हाथ में लेकर बोला कित्ती सुन्दर जगह है तुम तो यहीं रह जाओ और मुझे चेतक से स्वरूपसागर जाती वो बलखाती सड़क भी याद है जहाँ ये बोला गया. उन्हें कैसे पता चला ? मुकुन्दराम पंड्या ने जब यह वाक्य बोला होगा तब दत्तात्रेय गाँधी शायद अपने स्कूल से छूटकर सब्जी लेते हुए विलेपार्ले की रामानंद सोसाइटी में अपने घर जा रहे होंगे और शायद पछुआ हवाओं के साथ तैरता यह वाक्य उनतक पहुँच गया होगा.


हम शहर में बस गए 
जैसे झील में घुल जाती है चाँदनी 
जैसे हवाओं में घुल जाती है गंध 
जैसे नींद में घुल जाता है सपना 
जैसे अपनों में घुल जाता है कोई अपना 
हमने गाने गाये, नारे लगाए
कविताएँ पढ़ी-पढ़ाईं
भागे हुए लड़के-लड़कियों की शादियाँ कराईं
जान से प्यारे कॉमरेड्स के साथ
दिसम्बर के धरने में 
कलेक्ट्रेट पे तम्बू में रातें बिताईं 
फतेहसागर पर आवारागर्दी की 
देहली गेट पर मानव शृंखला बनायी 
नाटक किये, पोस्टर बनाए 
दोस्तों के साथ जाम टकराए 

गरज कि जिस शहर में हमारा इश्क परवान चढ़ा 
उस शहर को हत्यारों के हवाले कैसे कर दें 

यह तो नन्द चतुर्वेदी का शहर है 
यह तो युवराज सिंह झाला का शहर है 
यह तो फ़रहत बानो का शहर है 
यह तो कॉमरेड कचरूमल का शहर है 
यह तो असिस्टेंट कमांडेंट सौम्या मोहन का शहर है 
जो हमारी बहसें सुनते हुए कब बड़ी हो गयी पता ही नहीं चला 
यह तो मिहिर,गणपत, पल्लव और अरविन्द का शहर है 
जो कहीं भी जाएँ थोडा उदयपुर अपने साथ ले जायेंगे 
यह तो उदयपुर फिल्म सोसाइटी के साथियों का शहर है
जो हर स्क्रीनिंग के बाद न ख़तम होने वाली बहस करते हैं.

यह शहर हमसे छूट गया और जब प्रज्ञा रो रही थी तब मैंने उससे कहा कि जगह से मोह मत रखो नई जगह पर नई दोस्तियाँ होंगी. तबसे कभी नहीं बताया कि मैं कहाँ से आया, कोई भी कहीं से आया,आपको मतलब. दाना पानी जहाँ मिले इंसान वहाँ का. और जानना ही है तो मैं तो अपनी माँ के पेट से आया, आप आये होंगे किसी गौमुख से. यही कहा, भले लोगों से भी रुखाई से बात की.

लेकिन प्रज्ञा सुनो अब दावा ठोकने का वक्त आ गया है 
सबको बता दो उदयपुर हमारा है.

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हिमांशु के लेख, एक कहानी और एक कविता यहाँ पढ़ी जा सकती हैं और उनसे himanshuko@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है . 

टिप्पणियाँ

RINKI RAUT ने कहा…
आदरणीय हिमांशु जी, हिंदी साहित्य में आपका योगदान अतुल्य है
Onkar ने कहा…
बहुत बढ़िया
अनिल जनविजय ने कहा…
शानदार कविता। अद्भुत्त कविता। उदयपुर में कभी नहीं रहा, पर उदयपुर पर प्यार आ गया। हत्यारों से उदयपुर को बचाना है। हत्यारों को भगाना है।
त्रिलोकी मोहन पुरोहित 9414174179 ने कहा…
बहुत अच्छी रचना। अपनत्व और अधिकार से संपृक्त रचना। बद्धजी।

Babulal solanki ने कहा…
पिताजी की हृदयरोग की गंभीरता के मध्यनजर अभी अहमदाबाद हूं किन्तु टूटे दिल को संबल देने के लिए मैं मेरे के सम्मानीय मित्रो मेल फसबूक ब्लॉग ट्वीट को फॉलो करता हूं जंहा से मुझे सकारात्मक ऊर्जा मिलती है उसी की की तलाश में मैने हमारे आदरणीय गुरुजी व मित्र हिमांशु पण्ड्याजी का ब्लॉग खंगाला ये कविता पढ़कर थोड़ी देर के लिए मेरी पीड़ा भूल गया । हॉ हिमांशु ये शहर हमारा है दावा ठोकना होगा । हत्यारो के हवाले नही किया जा सकता ये खूबसूरत शहर । आपकी कविताओं में यथार्थ,तात्कालिकता के साथ सत्यता का दर्शन स्पस्ट झलकता है ।
बेनामी ने कहा…
पिताजी की हृदयरोग की गंभीरता के मध्यनजर अभी अहमदाबाद हूं किन्तु टूटे दिल को संबल देने के लिए मैं मेरे के सम्मानीय मित्रो मेल फसबूक ब्लॉग ट्वीट को फॉलो करता हूं जंहा से मुझे सकारात्मक ऊर्जा मिलती है उसी की की तलाश में मैने हमारे आदरणीय गुरुजी व मित्र हिमांशु पण्ड्याजी का ब्लॉग खंगाला ये कविता पढ़कर थोड़ी देर के लिए मेरी पीड़ा भूल गया । हॉ हिमांशु ये शहर हमारा है दावा ठोकना होगा । हत्यारो के हवाले नही किया जा सकता ये खूबसूरत शहर । आपकी कविताओं में यथार्थ,तात्कालिकता के साथ सत्यता का दर्शन स्पस्ट झलकता है ।
बेनामी ने कहा…
पिताजी की हृदयरोग की गंभीरता के मध्यनजर अभी अहमदाबाद हूं किन्तु टूटे दिल को संबल देने के लिए मैं मेरे के सम्मानीय मित्रो मेल फसबूक ब्लॉग ट्वीट को फॉलो करता हूं जंहा से मुझे सकारात्मक ऊर्जा मिलती है उसी की की तलाश में मैने हमारे आदरणीय गुरुजी व मित्र हिमांशु पण्ड्याजी का ब्लॉग खंगाला ये कविता पढ़कर थोड़ी देर के लिए मेरी पीड़ा भूल गया । हॉ हिमांशु ये शहर हमारा है दावा ठोकना होगा । हत्यारो के हवाले नही किया जा सकता ये खूबसूरत शहर । आपकी कविताओं में यथार्थ,तात्कालिकता के साथ सत्यता का दर्शन स्पस्ट झलकता है ।

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