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विमल चन्द्र पाण्डेय की नई कविता

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विमल युवा पीढ़ी के सबसे चर्चित कहानीकारों में से हैं. लेकिन कविताएँ भी उन्होंने लगातार लिखी हैं. असुविधा पर ही आप उनकी एक लम्बी कविता पढ़ चुके हैं.  इन कविताओं का गठन और तनाव दोनों चौंकाता है. लम्बी कविताओं में इसे लगातार निभा पाना कवियों के लिए हमेशा एक मुश्किल चुनौती रही है. जिस तरह का विषय उन्होंने चुना है इस कविता में उसमें शिल्प के स्तर पर बिखराव का खतरा होता है तो भाषा के स्तर पर शोर का. लेकिन विमल ने इसमें वह शिल्प चुना है जो मुझे निजी तौर पर बहुत प्रिय है और पोस्ट ट्रुथ के इस समय को रेशा रेशा पकड़ कर एक पूरी रस्सी बटने में क़ामयाब. यहाँ लम्बी कविता कई छोटी कविताओं का एक समुच्चय बन जाती है, ऐसी कविताएँ जो अलग अलग होते हुए भी एक ही विडम्बना के अलग-अलग पक्षों को साथ में बुनती हुई. कैंसर और बलात्कार  के आम हो चुकने वाले मेरे समय का रोज़नामचा ये कविता देश के पक्ष में हो सकती है पर ये निश्चित ही सरकार के ख़िलाफ़ है ऐसी जोखिम भरी पंक्ति से जो अपनी बात आज के दौर में शुरू करे समझिये उसका कलेजा निडर और नीयत साफ़ है ** ( स्वर्गीय नरेंद्र झा के लिये) कैंसर और ब

ध्वंस के इस काल में : मानवता के पक्ष में

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ये कविताएं मैंने यों ही फेसबुक पर ब्राउज़ करते चुन ली हैं। सुधिजन कहते हैं कि घटनाओं पर कविताएं नहीं लिखनी चाहिए। लेकिन कवि जिस समय सबसे अधिक उद्वेलित होता है उसके पास कोई और चारा होता है? इनका आक्रोश हो सकता है भाषा और शिल्प के सुंदर कपड़ों के बगैर चिढ़, उदासी और निराशा के फटे-पुराने कपड़ों में बाहर निकल आया हो।  पर जब सब इतना असुंदर है तो यह और क्या हो सकता था? जितेंद्र श्रीवास्तव से उधार लूँ अभिव्यक्ति तो यह "असुंदर-सुंदर" है।  सुमन केशरी बेटी इतना डर है बिखरा हुआ कि मन में आता है तुम्हें बीज के अंतर्मन में छिपे अंकुर-सा अपने भीतर ही पालूँ तब तक   जब तक कि तुम पूर्ण पेड़ न हो जाओ   पर फिर लगता है कि क्या तब तुम   झेल सकोगी धूप के ताए हवा के थपेड़े बिजली के गर्जन-तर्जन को क्या जमा सकोगी अपने पाँव   पृथ्वी पर मजबूती से.. डर डर कर भी बिटिया इतना तो जान चुकी हूँ अपने दम पर कि तुझे बीज की तरह उगना पड़ेगा अपने बूते ही अपने हिस्से की धूप , हवा और नमी पर हक जमाते... रमेश प्रजापति प्यारी बेटियो! प्यारी बेटियो! अब तुमको