विमल चन्द्र पाण्डेय की नई कविता
विमल युवा पीढ़ी के सबसे चर्चित कहानीकारों में से हैं. लेकिन कविताएँ भी उन्होंने लगातार लिखी हैं. असुविधा पर ही आप उनकी एक लम्बी कविता पढ़ चुके हैं. इन कविताओं का गठन और तनाव दोनों चौंकाता है. लम्बी कविताओं में इसे लगातार निभा पाना कवियों के लिए हमेशा एक मुश्किल चुनौती रही है. जिस तरह का विषय उन्होंने चुना है इस कविता में उसमें शिल्प के स्तर पर बिखराव का खतरा होता है तो भाषा के स्तर पर शोर का. लेकिन विमल ने इसमें वह शिल्प चुना है जो मुझे निजी तौर पर बहुत प्रिय है और पोस्ट ट्रुथ के इस समय को रेशा रेशा पकड़ कर एक पूरी रस्सी बटने में क़ामयाब. यहाँ लम्बी कविता कई छोटी कविताओं का एक समुच्चय बन जाती है, ऐसी कविताएँ जो अलग अलग होते हुए भी एक ही विडम्बना के अलग-अलग पक्षों को साथ में बुनती हुई. कैंसर और बलात्कार के आम हो चुकने वाले मेरे समय का रोज़नामचा ये कविता देश के पक्ष में हो सकती है पर ये निश्चित ही सरकार के ख़िलाफ़ है ऐसी जोखिम भरी पंक्ति से जो अपनी बात आज के दौर में शुरू करे समझिये उसका कलेजा निडर और नीयत साफ़ है ** ( स्वर्गीय नरेंद्र झा के लिये) कैंसर और ब